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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२) ७६ मान था, यह हम ऊपर दर्शा चुके हैं। अर्वाचीन ग्रन्थों में भी श्लोकबद्ध धातुपाठ के कुछ वचन उपलब्ध होते हैं । यथा
१-तथा च 'पूरी प्राप्यायने ष्वदास्वाद' इति श्लोकधातुपाठः । पुरुषकार पृष्ठ ४० ।
२-यत्त श्लोकधातुपाठे 'फक्क नीचैर्गतौ तक्क मर्षणे बुक्क भषणे ५ इति द्विककारस्तकिः । पुरुषकार पृष्ठ ४२ । ___३–तथा च श्लोकधातुपाठ:-'जुड प्रेरणवाची शुठालस्ये गज मार्ज च । शब्दार्थे पचि विस्तारें' इति । पुरुषकार पृष्ठ ४५ । __४-तथा च 'गुध रुषि मृद संक्षोदे मृड सुखार्थे च कुन्थ संश्लेषे' इति श्लोकधातुपाठे । पुरुषकार पृष्ठ ६६ ।
५-श्लोकधातुपाठः-यत उपस स्कारनिराकार्थः स निरश्च धान्यधनवाची इति । पुरुषकार पृष्ठ ७० ।
६–'विश मृश णुद प्रवेशामर्शक्षेपेषु षद्ल विशरणार्थः' इति च श्लोकधातुकारः । पुरुषकार पृष्ठ ७६ ।
७-तथा च तव पत ऐश्वर्ये वावृतु वर्तने कासृ दीप्त्यर्थे इति १५ श्लोकधातुकारः । देवराजयज्वा, निघण्टुव्याख्या २।११।२।।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि पुरुषकार के रचयिता कृष्ण लीलाशुक मुनि और देवराज यज्वा के काल में भी कोई श्लोकबद्ध धातुपाठ विद्यमान था।
धातुपाठ से संबद्ध अन्य ग्रन्थ धातुपाठ से संम्बद्ध कतिपय अन्य ग्रन्थ भी उपलब्ध होते है। उनमें अधिकतर ग्रन्थों का सम्बन्ध पाणिनीय धातुपाठ से प्रतीत होता है। अतः हम उनका निर्देश पाणिनीय धातुपाठ के प्रसङ्ग में ही करते हैं
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१. यह तथा आगे की पृष्ठ संख्या पुरुषकार के हमारे संस्करण की है। २. यहां 'तप' पाठ होना चाहिए।
३. यह पाठ सत्यव्रत सामश्रमी के संस्करण में त्रुटित है। हमने यह पाठ अपने मित्र पं० शुचिव्रत जी शास्त्री द्वारा सम्पादित निघण्टुव्याख्या से लिया है। शास्त्री जी ने अनेक हस्तलेखों के आधार पर इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का महान् परिश्रम से सम्पादन किया है । अभी यह प्रकाशित नहीं हुमा ।
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