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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
___ इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि पाणिनि से पूर्व कोई छन्दोबद्ध धातुपाठ भी विद्यमान था। उसके ही कतिपय अंश पाणिनि के धातूपाठ में सुरक्षित दिखाई देते हैं।
३-पाणिनीय धातुपाठ में बहुत्र प्रकरणविरोध उपलब्ध होता ५ है। यथा
क-उदात्त चवर्गान्त धातुओं में अनुदात्त इकारान्त क्षि धातु का पाठ उपलब्ध होता है। द्र०-क्षीरत० १।१४६।।
ख–उदात्त अन्तस्थान्त धातुओं में अनुदात्त इकारान्त जि धातु का पाठ मिलता है । द्र०-क्षीरत० १३१७४॥ १० ग-उष्मान्त धातुओं में वान्त (अन्तस्थान्त) कव धातु का पाठ देखा जाता है । द्र०-क्षोरत० ११४७६।।
यह प्रकरणविरोध पूर्वाचार्यों के अनुरोध के कारण है, ऐसा प्राचीन वृत्तिकार कहते हैं । इसी कारण क्षि क्षये (क्षीरत० १।१४६) धातु के
व्याख्यान में क्षीरस्वामी वक्ष्यति च लिखकर किसी प्राचीन व्याख्यो१५ कार का श्लोक उद्धृत करता है
पाठमध्येऽनुदात्तानामुदात्तः कथितः क्वचित् ॥
अनुदात्तोऽप्युदात्तानां पूर्वेषामनुरोधतः ॥ अर्थात्-पाणिनीय धातुपाठ में कहीं-कहीं अनुदात्तों के मध्य उदात्त और उदात्तों के मध्य अनुदात्त धातुओं का जो पाठ उपलब्ध होता है, वह पूर्वाचार्यों के अनुरोध से है।
यह भी ध्यान रहे कि काशकृत्स्न धातुपाठ में भी चवर्गान्त उदात्त धातुओं के मध्य इकारान्त अनुदात्त क्षि धातु का पाठ उपलब्ध होता है।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि पाणिनि ने अपने घातुपाठ के प्रवचन । में पूर्वाचार्यों के धातुपाठ का पर्याप्त आश्रय लिया है। पाणिनीय धातुपाठ दण्डकपाठ कहाता है।
श्लोकबद्ध धातुपाठ पाणिनि ने पूर्व किसी प्राचार्य का श्लोकबद्ध धातुपाठ भी विद्य
१. द्र० 'वृतु वृधु भाषार्था इत्यन्ते दण्डकधातुपाठे .....' । पुरुषकार, पृष्ठ ३० ४० । 'कविकामधेनुकारश्च दण्डकधातुपाठमेव... -।' पुरुषकार, पृष्ठ ४१ ।