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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२)
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अर्थ का समुच्चायक माना है। परन्तु उदात्तावनुदात्तेत्तौ सूत्र का व्यवधान होने पर चकार पूर्वपठित पास्कन्दन अर्थ का समुच्चय कैसे करेगा, यह वृत्तिकारों ने स्पष्ट नहीं किया । काशकृत्स्न, कातन्त्र, हैम, शाकटायन के धातुपाठों में तिक तिग धातुओं का केवल हिंसा अर्थ ही लिखा है, प्रास्कन्दन नहीं । इतना ही नहीं, षघ हिंसायाम् (५।२५) ५ सूत्र पर क्षीरस्वामी ने लिखा है
तिक तिग चषघ हिंसायाम् इत्येके चषघ्नोति। इससे स्पष्ट होता है कि छन्द:पूर्त्यर्थ पढ़े गए चकार का वास्तविक प्रयोजन न जानकर किसी वृत्तिकार ने उसे प्रास्कन्दन अर्थ का समुच्चायक मान लिया, तो अन्य ने उसे धत्ववयव बनाकर चषघ धातु १० की कल्पना कर ली। वस्तुतः यहां
ष्टिघ पास्कन्दने तिक, तिग च षघ हिंसायाम् इस प्रकार अनुष्टुप् के दो चरण किसी प्राचीन श्लोकबद्ध धातुपाठ में थे। पाणिनि ने उन्हें यथावत् ग्रहण करके मध्य में उदात्तावनदात्तेतौ सूत्र और जोड़ दिया । इस अवस्था में चकार अनर्थक १५ हो गया। ग–चुरादिगण में एक सूत्र है
उपसर्गाच्य दैये । क्षीरत० १०।२२६॥ यहां क्षीरस्वामी ने चकारं भिन्नक्रममाहुः लिखकर ज्ञापित किया है कि वास्तविक सूत्रपाठ उपसर्गाद् दैये च होना चाहिए। हमारा २० विचार तो यही है कि यहां पर भी चकार का प्रस्थान में पाठ छन्दोऽनुरोध से ही है।
घ-चुरादिगण के कुछ सूत्र हैंरच प्रतियत्ने, कल गतौ संख्याने च, चह कल्कने, मह पूजायाम, शार कृप श्रथ दौर्बल्ये । क्षीरत० १०।२५२-२५६।। इन्हें आप इस रूप में पढ़िए
रच प्रतियत्ने कल, गतौ संख्याने च चह ।
कल्कने मह पूजायाम, शार कृप श्रथ दौर्बल्ये ॥ यह पूरा यथाश्रुत भुरिक (एकाक्षर अधिक) अनुष्दुप् श्लोक है ।
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