________________
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
चाहिए था चते चदे याचने च । दूसरे सूत्र में चकार भर्जन के समुच्चय के लिए है। अतः यहां भी 'लाज लाजि भर्त्सने च' सूत्रपाठ होना चाहिए था । अतएव इस पर मैत्रेयरक्षित लिखता है-चकारो भिन्नक्रमः । यहां दोनों धातुसूत्रों में प्रस्थान में चकार का पाठ छन्दोऽनुरोध से है।
अष्टाध्यायी ४।४।३६ के परिपन्थं च तिष्ठति सूत्र में भी चकार का प्रस्थान में पाठ छन्दोऽनुरोध से ही है। इस तुलना से स्पष्ट है कि जिस प्रकार अष्टाध्यायी का परिपन्थं च तिष्ठति सूत्र तथा तत्पूर्ववर्ती सूत्र प्राचीन श्लोकबद्ध शब्दानुशासन से संग्रहीत हैं, उसी प्रकार चते चदे च याचने और लाज लाजि च भर्त्सने धातुसूत्र भी किसी प्राचीन श्लोकबद्ध धातुपाठ से संगृहीत है।
क्षीरस्वामी का भ्रम-क्षीरस्वामी ने इस तथ्य को न जानकर इस सूत्र पर लिखा है कि चकार पूर्वपठित रेट्र धातु के समुच्चय के लिए
है अर्थात् रेट्ट के परिभाषण और याचन दोनों अर्थ हैं। क्षीरस्वामी १५ का यह व्याख्यान अयुक्त है । क्योंकि सम्पूर्ण धातुपाठ में अन्यत्र कहीं
पर भी पूर्व धातु के समुच्चय के लिए चकार का निर्दश उपलब्ध नहीं होता।
हेमचन्द्र द्वारा क्षीरस्वामी का अनुसरण-प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने धातुपारायण में क्षीरस्वामी का अनुसरण करके रेटग परि२० भाषणयाचनयोः (१८९७) में रेट्ट के परिभाषण और याचन दोनों अर्थों का निर्देश किया है।
यह भी ध्यान रहे कि चते चदे च याचने यह क्षीरस्वामी का पाठ है। मैत्रेय चकार नहीं पढ़ता। सायण ने याचने च ऐसा पाठविपर्यास किया है । उससे विदित होता है कि वह पूर्व पाठ में चकार को परिभाषण अर्थ के समुच्चय के लिए ही मानता है। अध्येताओं को भ्रम न हो, इसलिए उसने चकार को यथास्थान रख दिया ।
ख-स्वादिगण में पाठ हैष्टिघ पास्कन्दने, उदात्तावनुदात्तेत्तौ, तिक तिग च, षघ हिंसायाम् । क्षीरत० ५।२२-२५॥ ३० यहां क्षीरस्वामी और मैत्रेय ने चकार को पूर्वपठित प्रास्कन्दन