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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका श्लोक रचे जाने के पश्चात् वीरसेन स्वामी की मृत्यु हुई और उतने श्लोकों की रचना में लगभग ७ वर्ष लगे होंगे, अत: वीरसेन स्वामी के स्वर्गवास का समय ७३८ + ७ = ७४५ शक के लगभग आता है । तथा उनका कुल रचना-काल शक ७१४ से ७४५ अर्थात ३१ वर्ष पड़ता
___ अब हम प्रशस्ति में दी हुई ग्रह-स्थिति पर भी विचार कर सकते हैं। सूर्य की स्थिति तुला राशि में बताई गई है सो ठीक ही है, क्योंकि, कार्तिक मास में सूर्य तुला में ही रहता है । चन्द्र की स्थिति का द्योतक पद अशुद्ध है । शुक्ल पक्ष होने से चन्द्र सूर्य से सात राशि के भीतर ही होना चाहिये और कार्तिक मास की त्रयोदशी को चन्द्र मीन या मेष राशि में ही हो सकता है। अतएव 'णेमिचंदम्मि' की जगह शद्ध पाठ 'मीणे चंदम्मि' प्रतीत होता है जिससे चन्द्र की स्थिति मीन राशि में पड़ती है। लिपिकार के प्रमाद से लेखन में वर्णव्यत्यय हो गया जान पड़ता है । शुक्र की स्थिति सिंह राशि में बताई है जो तुला के सूर्य के साथ ठीक बैठती है। . संवत्सर के निर्णय में नौ ग्रहों में से केवल तीन ही ग्रह अर्थात् गुरु, राहु और शनि की स्थिति सहायक हो सकती है। इनमें से शनि का नाम तो प्रशस्ति में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । राहु और गुरु के नामोल्लेख स्पष्ट हैं किन्तु पाठ- भ्रमण के कारण उनकी स्थिति का निर्धान्त ज्ञान नहीं होता । अतएव इन ग्रहों की वर्तमान स्थिति पर से प्रशस्ति के उल्लेखों का निर्णय करना आवश्यक प्रतीत हुआ । आज इसका विवेचन करते समय शक १८६१, आश्विन शुक्ल ५, मंगलवार है और इस समय गुरु मीन में, राहु तुला में तथा शनि मेष में है। गुरु की एक परिक्रमा बारह वर्ष में होती है, अत: शक ७३८ से १८६१ अर्थात् ११२३ वर्ष में उसकी ९३ परिक्रमाएं पूरी हुई और शेष सात वर्ष में सात राशियाँ आगे बढ़ीं। इस प्रकार शक ७३८ में गुरु की स्थिति कन्या या तुला राशि में होना चाहिये । अब प्रशस्ति में गुरु को हम सूर्य के साथ तुला राशि में ले सकते हैं।
१. आज से कोई ३० वर्ष पूर्व विद्वद्वर पं. नाथूरामजी प्रेमी ने अपनी विद्वद्रत्नमाला नामक लेखमाला में वीरसेन के शिष्य जिनसेन स्वामी का पूरा परिचय देते हुए बहुत सयुक्तिक रूप से जिनसेन का जन्मकाल शक संवत् ६७५ अनुमान किया था और कहा था कि उनके गुरु का जन्म उनसे अधिक नहीं तो १० वर्ष पहले लगभग ६६५ शक में हुआ होगा'। इससे वीरसेन स्वामी का जीवनकाल शक ६६५ से ६४५ तक अर्थात् ८० वर्ष पड़ता है । ठीक यही अनुमान अन्य प्रकार से संख्या जोड़कर प्रेमीजी ने किया था ऐसा जान पड़ता है। विद्वद्रत्नमाला पृ.२५ आदि. व पृ. ३६. इन हमारे कविश्रेष्ठों के पूर्ण परिचय के लिये पाठको को प्रेमीजी का वह ८९ पृष्ठों का पूरा लेख पढ़ना चाहिये।