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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका शिष्य द्वारा लिखी गई है । अतएव उसमें उनकी कीर्ति विशेष रूप से वर्णित पाई जाती है। वहां उन्हें साक्षात् केवली के समान समस्त विश्व के पारदर्शी कहा है। उनकी वाणी षट्खण्ड आगम में अस्खलित रूप से प्रवृत्त होती थी। उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञा को देखकर सर्वज्ञ की सत्ता में किसी मनीषा को शंका नहीं रही थी । विद्वान लोग उनकी ज्ञानरूपी किरणों के प्रसार को देखकर उन्हें प्रज्ञा श्रमणों में श्रेष्ठ आचार्य और श्रुतकेवली कहते थे । सिद्धान्तरूपी समुद्र के जल से उनकी बुद्धि शुद्ध हुई थी जिससे वे तीव्रबुद्धि प्रत्येकबुद्धों से भी स्पर्धा करते थे। उनके विषय में एक मार्मिक बात यह कही गई है कि उन्होंने चिरंतन काल की पुस्तकों (अर्थात पुस्तकारुद सिद्धान्तों) की खूब पुष्टि की और इस कार्य में वे अपने से पूर्व के समस्त पुस्तक पाठियों से बढ़ गये । इसमें सन्देह नहीं कि वीरसेन की इस टीकाने इन आगम-सूत्रों को चमका दिया और अपने से पूर्व की अनेक टीकाओं को अस्तमित कर दिया।
जिनसेन ने अपने आदिपुराण में भी गुरु वीरसेन की स्तुति की है और उनकी भट्टारक पदवी का उल्लेख किया है । उन्हें वादि-वृन्दारक मुनि कहा है, उनकी लोकविज्ञता, कवित्वशक्ति और वाचस्पति के समान वाग्मिता की प्रशंसा की है, उन्हें सिद्धान्तोपनिबन्धकर्ता कहा है तथा उनकी 'धवला' भारती को भुवनव्यापिनी कहा है ।
१. भूयादावीरसेनस्य वीरसेनस्य शासनम् । शासनं वरिसेनस्य वीरसेन-कुशेशयम ॥१७॥
आसीदासीददासन्नभव्यसत्तवकुमुद्वतीम् । मुद्वंती कर्तुमीशो य: शशांक इव पुष्कल: ॥ १८॥ श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्रारकपथप्रथ: । पारश्वाधिविश्वानां साक्षादिव स केवली ॥१९॥ प्रीणितप्राणिसंपत्तिराक्रांताशेषगोचरा । भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्डे यस्य नास्खलत् ॥ २०॥ यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाता: सर्वज्ञसद्भावे निरारेका मनीषिणः ॥ २१ ॥ यं प्राहुः प्रस्फुरद्वोधदीधितिप्रसरोदयम् । श्रुतकेवलिनं प्राज्ञा: प्रज्ञाश्रमणसत्तमम् ॥ २२ ॥ प्रसिद्ध-सिद्धसिद्धान्तवार्धिवाधौंतशुद्धधी: । सार्द्ध प्रत्येकबुद्धैर्य: स्पर्धते धीद्धबुद्धिमिः ॥ २३ ॥ पुस्तकानां चिरत्नानां गुरुत्वमिह कुर्वता । येनातिशयिता: पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यका: ॥ २४॥ यस्तप्तोद्दीप्तकिरणैर्भव्यांभोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ट मुनीनेन: पंचस्तूपान्वयांवरे ॥ २५ ॥ प्रशिष्यश्रन्द्रसेनस्य य: शिप्योऽप्यार्यनन्दिनाम् । कुलं गणं च सन्तानं स्वगुणैरुदजिज्वलत् ॥२६॥ तस्य शिष्योऽभवच्छीमान् जिनसेनसमिद्धधी: । (जयधवला-प्रशस्ति) २. श्री वीरसेन इत्याप्त-भट्टारकपृथुप्रथः । स म: पुनातु पूतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ॥ ५५॥
लोकवित्व कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयम् । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥५६॥ सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मदगुरोश्चिरम्। मन्मन: सरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ॥५७॥ धवलां भारतीं तस्य कीर्ति च शुचि-निर्मलाम् । धवलीकृतनि: शेषभुवनां तां नमाम्यहम् ॥५८॥
आदिपुराण-उत्थानिका