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________________ ५२ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका अट्ठतीसम्हि सासिय विक्कमरायम्हि एसु संगरमो। (?) पासे सुतेरसीए भाव-विलग्गे धवल-पक्खे ॥६॥ जगतुंगदेवरज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे। सूरे तुलाए सेते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ॥ ७॥ चावम्हि वरणिवुत्ते सिंधे सुक्कम्मि णेमिचंदम्मि । कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिआ धवला ॥८॥ वोद्दणराय-रिंदे णरिंदे-चूडामणिम्हि भुंजते । सिद्धंतगंथमत्थिय गुरुप्पसाएण विगत्ता सा ॥९॥ टीकाकार वीरसेनाचार्य - दुर्भाग्यत: इस प्रशस्तिका पाठ अनेक जगह अशुद्ध है जिसे उपलब्ध अनेक प्रतियों के मिलान से भी अभी तक हम पूरी तरह शुद्ध नहीं कर सके । तो भी इस प्रशस्ति से टीकाकार के विषय में हमें बहुत सी ज्ञातव्य बातें विदित हो जाती हैं। पहली गाथा से स्पष्ट है कि इस टीका के रचयिता का नाम वीरसेन है और उनके गुरु का नाम एलाचार्य । फिर चौथी गाथा में वीरसेन के गुरु का नाम आर्यनन्दि और दादा गुरु का नाम चन्द्रसेन कहा गया है । संभवत: एलाचार्य उनके विद्यागुरु और आर्यनन्दि दीक्षागुरु थे। इसी गाथा में उनकी शाखा का नाम भी पंचस्तूपान्वय दिया है। पांचवी गाथा में कहा गया है कि इस टीका के कर्ता वीरसेन सिद्धांत, छंद, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण अर्थात् न्याय, इन शास्त्रों में निपुण थे और भट्टारक पद से विभूषित थे । आगे की तीन अर्थात् ६ से ८ वीं तक की गाथाओं में इस टीका का नाम 'धवला' दिया गया है और उसके समाप्त होने का समय वर्ष, मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र व अन्य ज्योतिषसंबन्धी योगों के सहित दिया है और जगतुंगदेव के राज्य का भी उल्लेख किया है । अन्तिम अर्थात् ९ वीं गाथा में पुनः राजा का नाम दिया है जो प्रतियों में 'वोद्दणराय' पढ़ा जाता है। वे नरेन्द्रचूड़ामणि थे। उन्हीं के राज्य में सिद्धान्त ग्रन्थ के ऊपर गुरु के प्रसाद से लेखक ने इस टीका की रचना की। द्वितीय सिद्धान्त ग्रन्थ कषायप्राभृत की टीका 'जयधवला' का भी एक भाग इन्हीं वीरसेनाचार्य का लिखा हुआ है। शेष भाग उनके शिष्य जिनसेन ने पूरा किया था। उसकी प्रशस्ति में भी वीरसेन के संबंध में प्राय: ये ही बातें कहीं गई हैं। चूंकि वह प्रशस्ति उनके
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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