SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका 1 इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में वीरसेन द्वारा धवला और जयधवला टीका लिखे इस प्रकार वृत्तान्त दिया है । बप्पदेव गुरुद्वारा सिद्धान्त ग्रंथों की टीका लिखे जाने के कितने ही काल पश्चात् सिद्धान्तों के तत्वज्ञ श्रीमान् एलाचार्य हुए जो चित्रकूटपुर में निवास करते थे । उनके पास वीरसेन गुरु ने समस्त सिद्धान्त का अध्ययन किया और ऊपर के निबन्धनादि आठ अधिकार लिखे । फिर गुरु की अनुज्ञा पाकर वे वाटग्राम में आये और वहां के आनतेन्द्र द्वारा बनवाये हुए जिनालय में ठहरे । वहां उन्हें व्याख्याप्रज्ञप्ति (बप्पदेव गुरु की बनाई हुई टीका) प्राप्त हो गई। फिर उन्होंने ऊपर के बन्धनादि अठारह अधिकार पूरे करके सत्कर्म नामका छठवां खण्ड संक्षेप से तैयार किया और इस प्रकार छह खण्डों की ७२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत और संस्कृत मिश्रित धवला टीका लिखी। तत्पश्चात् कषायप्राभृत की चार विभक्तियों की २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखने के पश्चात् ही वे स्वर्गवासी हो गये । तब उनके शिष्य जयसेन (जिनसेन) गुरु ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर उसे पूरा किया । इस प्रकार जयधवला ६० हजार श्लोक - प्रमाण तैयार हुई ' । वीरसेन स्वामी की अन्य कोई रचना हमें प्राप्त नहीं हुई और यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनका समस्त सज्ञान अवस्था का जीवन निश्चयत: इन सिद्धान्त ग्रंथों के अध्ययन, संकलन और टीका-लेखन में ही बीता होगा। उनके कृतज्ञ शिष्य जिनसेनाचार्य ने उन्हें जिन विशेषणों और पदवियों से अलंकृत किया है उन सबके पोषक प्रमाण उनकी धवला और जयधवला टीका में प्रचुरता से पाये जाते हैं । उनकी सूक्ष्म मार्मिक बुद्धि, अपार पाण्डित्य, विशाल स्मृति और अनुपम व्यासंग उनकी रचना के पृष्ठ पृष्ठ पर झलक रहे हैं। उनकी उपलब्ध रचना ७२ + २० = ९२ हजार श्लोक प्रमाण है । महाभारत शतसाहस्री अर्थात् एक १. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमानेलाचार्यो वभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ॥ १७७॥ तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधील्य वीरसेनगुरुः । उपरितमनिबन्धनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख ॥ १७८ ॥ आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान्गुरोरनुज्ञानात् । वाटग्रामे चात्रानतेन्द्रकृतजिनगृहे स्थित्वा ॥ १७९ ॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन् । उपरितमबन्धनाद्यधिकारैरष्टादशविकल्पैः ॥ १८० ॥ सत्कर्मनामधेयं षष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य । इति षण्णां खण्डानां ग्रंथसहस्रैद्विसप्तत्या ॥ १८१ ॥ प्राकृत - संस्कृत-भाषा-मिश्रां टीकां विलिख्य धवलाख्याम् । जयधवलां च कषायप्राभृत के चतसृणां विभक्तीनाम् ॥ १८२ ॥ विशतिसहस्रसद्ग्रंथरचनया संयुता विरच्य दिवम् । यातस्ततः पुनस्तच्छिप्यो जयसेन (जिनसेन) गुरुनामा ॥ १८३ ॥ तच्छेषं चत्वारिशता सहस्रैः समापितवान् । जयधवलैवं षष्टिसहस्रग्रंथोऽभवट्टीका ॥ १८४ ॥
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy