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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका अविश्वास का कोई कारण नहीं है । तथा वृहट्टिपणिका में जो उसका रचनाकाल वीर निर्वाण से ६०० वर्ष पश्चात सूचित किया है वह भी गलत सिद्ध नहीं होता । अभी अभी अनेकान्त (वर्ष २, किरण १२, प. ६६६) में श्रीमान् पं. नाथूरामजी प्रेमी का 'योनिप्राभृत और प्रयोगमाला' शीर्षक लेख छपा है, जिसमें उन्होंने प्रमाण देकर बतलाया है कि भंडारकर इंस्टीट्यूट वाला 'योनिप्राभृत' और उसी के साथ गुंथा हुआ 'जगत्सुंदरी योगमाला' संभवत: हरिषेणकृत है, किन्तु हरिषेणके समय में एक और प्राचीन योनिप्राभृत विद्यमान था । बृहट्टिपणिका की प्रामाणिकता के विषय में प्रेमीजी ने कहा है कि 'वह सूची एक श्वेतांबर विद्वान् ने प्रत्येक ग्रंथ देखकर तैयार की थी और अभी तक वह बहुत प्रामाणिक समझी जाती है ' । नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली के अनुसार धरसेन का काल वीर निर्वाण ६२ + १०० + १८३ + १२३+ ९७ + २८ + २१ = ६१४ वर्ष पश्चात् पड़ता है, अत: अपने पट्टकाल से १४ वर्ष पूर्व उन्होंने यह ग्रंथ रचा होगा । इस समीकरण से प्राकृतपट्टावली और बृहट्टिप्पणिका के संकेत, इन दोनों की प्रामाणिकता सिद्ध होती है, क्योंकि, ये दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र आधार पर लिखे हुए प्रतीत होते हैं। कुन्दकुन्दकृत - षट्खण्डागम के रचनाकाल पर कुछ प्रकाश कुन्दकुन्दाचार्य के संबन्ध से भी पड़ता है। इन्द्रनन्दिने श्रुतावतार में कहा है कि जब कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत दोनों पुस्तकारूढ़ हो चुके तब कोण्डकुन्दपुर में पद्यनन्दि मुनिने, जिन्हें सिद्धान्त का ज्ञान गुरुपरिपाटी से मिला था, उन छह खण्डों में से प्रथमतीन खण्डों पर परिकर्म नामक बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका-ग्रन्थ रचा । पद्यनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य का भी नाम था और श्रुतावतार में कोण्डकुन्दपुर का उल्लेख आने से इसमें संदेह नहीं रहता कि यहां उन्हीं से अभिप्राय है। यद्यपि प्रो.उपाध्ये कुन्दकुन्द के ऐसे किसी ग्रन्थ की रचना की बात को प्रामाणिक नहीं स्वीकार करते, क्योंकि उन्हें धवला व जयधवला में इसका कोई संकेत नहीं मिला । किंतु कुन्दकुन्द के सिद्धांत ग्रंथों पर टीका बनाने की बात सर्वथा निर्मूल नहीं कही जा सकती, क्योंकि, जैसाकि हम अन्यत्र बता रहे हैं, परिकर्म नामक ग्रन्थ के उल्लेख धवला व जयधवला में अनेक जगह पाये जाते हैं। ___ प्रो उपाध्ये ने कुन्दकुन्द के लिये ईस्वी का प्रारम्भ काल, लगभग प्रथम दो शताब्दियों के भीतर का समय, अनुमान किया है उससे भी षट्ण्डागम की रचना का समय उपरोक्त ठीक जंचता है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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