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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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अंक ९ में श्रीयुत् पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार का लिखा हुआ योनिप्राभृत गन्थ का परिचय प्रकाशित हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ ८०० श्लोक प्रमाण प्राकृत गाथाओं में है, उसका विषय मन्त्र-तन्त्रवाद है, तथा वह १५५६ वि. संवत् में लिखी गई बृहट्टिप्पणिका नाम की ग्रन्थ-सूची के आधार पर धरसेन द्वारा वीर निर्वाण से ६०० वर्ष पश्चात् बना हुआ माना गया है । इस ग्रंथ की एक प्रति भांडारकर इंस्टीट्यूट पूना में है, जिसे देखकर पं. बेचरदासजी ने जो नोट्स लिये थे उन्हीं पर से मुख्तार जी ने उक्त परिचय लिखा है । इस प्रति में ग्रंथ का नाम तो योनिप्राभृत ही है किन्तु उसके कर्ता का नाम पण्हसवण मुनि पाया जाता है । इन महामुनि ने उसे कूष्माण्डिनी महादेवी से प्राप्त किया था और अपने शिष्य पुष्पदंत और भूतबलि के लिये लिखा था । इन दो नामों के कथन से इस ग्रंथ का धरसेनकृत होना बहुत संभव जंचता है । प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धिका नाम है और उसके धारण करने वाले मुनि प्रज्ञाश्रमण कहलाते थे । जोणिपाहुडकी इस प्रति का लेखन-काल संवत् १५८२ है, अर्थात् वह चार सौ वर्ष से भी अधिक प्राचीन है । 'जोणिपाहुड' नामक ग्रंथ का उल्लेख धवला में भी आया है। जो इस प्रकार है -
'जोणिपाहुडे भणिद - मंत-तंत- सत्तीओ पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्वो' (धवला. अ. प्रति पत्र १९९८)
इससे स्पष्ट है कि योनिप्राभृत नाम का मंत्रशास्त्र संबन्धी कोई अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ अवश्य है । उपर्युक्त अवस्था में आचार्य धरसेन निर्मित योनिप्राभृत ग्रंथ के होने में
१ योनिप्राभृतं वीरात् ६०० धारसेनम् (बृहट्टिपणिका जै. सा. सं. १, २ (परिशिष्ट)
२ धवला में पण्हसमणों को नमस्कार किया है और अन्य ऋद्वियों के साथ प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धिका विवरण दिया है । यथा -
णमो समणाणं ॥ १८ ॥ औत्पत्तिकी वैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी चेति चतुर्विधा प्रज्ञा । एदेसु पण्हसमणेसु केसिं गहणं । चदुण्हं पि गहणं । प्रज्ञा एवं श्रवण येषां ते प्रज्ञाश्रवणा:
धवला. प्रति ६८४
जयधवला की प्रशस्ति में कहा गया है कि वीरसेन के ज्ञान के प्रकाश को देखकर विद्वान् उन्हें श्रुतकेवली और प्रज्ञाश्रमण कहते थे । यथा -
यमाहुः प्रस्फुरद्बोधदीधितिप्रसरोदयम् ।
श्रुतकेवलिन प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रवणसत्तमम् ॥ २ ॥
तिलोयपण्णत्ति गाथा ७० में कहा गया है कि प्रज्ञाश्रमणों में अन्तिम मुनि 'वज्रयश' नाम के हुए। यथा - पण्हसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम । ( अनेकान्त, २, १२ पृ. ६६८)