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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका भी उस पट्टावली की मूल प्रति मिल नहीं रही है । ऐसी अवस्था में हमें उसकी जांच मुद्रित पाठ पर से ही करनी पड़ती है । यह पट्टावली प्राकृत में है और संभवत: एक प्रति पर से बिना कुछ संशोधन के छपाई गई होने से उसमें अनेक भाषादि -दोष है । इसलिए उस पर से उसकी रचना के समय के सम्बन्ध में कुछ कहना अशक्य है । पट्टावली के ऊपर जो तीन संस्कृत श्लोक है उनकी रचना बहुत शिथिल है । तीसरा श्लोक सदोष है । पर उन पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि उनका रचयिता स्वयं पट्टावली की रचना नहीं कर रहा, किन्तु वह अपनी उस प्रस्तावना के साथ एक प्राचीन पट्टावली को प्रस्तुत कर रहा है। पट्टावली को नन्दि आम्नाय, बलात्कार गण, सरस्वती गच्छ व कुन्दकुन्दान्वय की कहने का यह तो तात्पर्य हो ही नहीं सकता कि उसमें उल्लिखित आचार्य उस अन्वय में कुन्दकुन्द के पश्चात् हुए हैं, किन्तु उसका अभिप्राय यही है कि लेखक उक्त अन्वय का था और ये सब आचार्य उक्त अन्वय में माने जाते थे। इस पट्टावली में जो अंगविच्छेद का क्रम और उसकी काल गणना पाई जाती है वह अन्यत्र की मान्यता के विरुद्ध जाती है। किन्तु उससे अकस्मात अंगलोप संबन्धी कठिनाई कुछ कम हो जाती है और जो पांच आचार्यों का २२० वर्ष का काल असंभव नहीं तो दुःशक्य जंचता है उसका समाधान हो जाता है । पर यदि यह ठीक हो तो कहना पड़ेगा कि श्रृत-परम्परा के संबन्ध में हरिवंशपुराण के कर्ता से लगाकर श्रुतावतार के कर्ता इन्द्रनन्दि तक के सब आचार्यों ने धोखा खाया है और उन्हें वे प्रमाण उपलब्ध नहीं थे जो इस पट्टावली के कर्ता को थे । समयाभाव के कारण इस समय हम इसकी और अधिक जांच पड़ताल नहीं कर सकते। किन्तु साधक बाधक प्रमाणों का संग्रह करके इसका निर्णय किये जाने की आवश्यकता है। यदि यह पट्टावली ठीक प्रमाणित हो जाय तो हमारे आचार्यों का समय वीर निर्वाण के पश्चात् ६२ +१०० +१८३ + १२३ + ९७ +२८ +२१ = ६१४ और ६८३ वर्ष के भीतर पड़ता है। धरसेनकृत जोणिपाहुड - धरसेन, पुष्पदन्त और भूतवलि के समय पर प्रकाश डालनेवाला एक और प्रमाण है । प्रस्तुत ग्रन्थ की उत्थानिका में कहा गया है कि जब धरसेनाचार्य के पत्र के उत्तर में आन्ध्रप्रदेश से दो साधु, जो पीछे पुष्पदन्त और भूतबलि कहलाये, उनके पास पहुंचे तब धरसेनाचार्य ने उनकी परीक्षा के लिये उन्हें कुछ मन्त्रविद्याएं सिद्ध करने के लिये दी। इससे धरसेनाचार्य की मन्त्रविद्या में कुशलता सिद्ध होती है। अनेकान्त भाग २ के गत १ जुलाई के
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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