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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि जो एकादशांगधारियों और उनके पश्चात् के आचार्यों के समयों में अन्तर पड़ता है वह क्यों और किस प्रकार ?
काल संबन्धी अंकों पर विचार करने से ही स्पष्ट हो जाता है कि जहां पर अन्यत्र पांच एकादशांगधारियों और चार एकांगधारियों का समय अलग अलग २२० और ११८ वर्ष बतलाया गया है वहां इस पट्टावली में उनका समय क्रमश: १२३ और ९७ वर्ष बतलाया है अर्थात् २२० वर्ष के भीतर नौ ही आचार्य आ जाते हैं और आगे ११८ वर्ष में अन्य पांच आचार्य गिनाये गये हैं जिनके अन्तर्गत धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि भी हैं।
___ जहां अनेक क्रमागत व्यक्तियों का समय समष्टि रूप से दिया जाता है वहां बहुधा ऐसी भूल हो जाया करती है । किन्तु जहां एक एक व्यक्ति का काल निर्दिष्ट किया जाता है वहां ऐसी भूल की संभावना बहुत कम हो जाती है। हिन्दु पुराणों में अनेक स्थानों पर दो राजवंशों का काल एक ही वंश के साथ दे दिया गया है । स्वयं महावीर तीर्थंकर के निर्वाण से पश्चात् के राजवंशों का जो समय जैन ग्रंथों में पाया जाता है उसमें भी इस प्रकार की एक भूल हुई है, जिसके कारण वीरनिर्वाण के समय के संबन्ध में दो मान्यतायें हो गई हैं जिनमें परस्पर ६० वर्ष का अन्तर पड़ गया है । (देखो आगे वीरनिर्वाण संवत्) । प्रस्तुत परम्परा में इन २२० वर्षों के काल में भी ऐसा ही भ्रम हुआ प्रतीत होता है।
यह भी प्रश्न उठता है कि यदि अईद्वलि आदि आचार्य अंगज्ञाताओं की परम्परा थे तो उनके नाम सर्वत्र परम्पराओं में क्यों नहीं रहे, इसका कारण अर्हद्वलिके द्वारा स्थापित किया गया संघभेद प्रतीत होता है । उनके पश्चात् प्रत्येक संघ अपनी अपनी परम्परा अलग रखने लगा, जिसमें स्वभावत: संघभेद के पश्चात् के केवल उन्हीं आचार्यों के नाम रक्खे जा सकते थे जो उसी संघ के हों या जो संघभेद से पूर्व के हों। अत: केवल लोहार्य तक की ही परम्परा सर्वमान्य रही । संभव है कि इसी कारण काल-गणना में भी वह गड़बड़ी आ गई हो, क्योंकि अंगज्ञाताओं की परम्परा को संघ-पक्षपात से बचाने के लिये लेखकों का यह प्रयत्न हो सकता है कि अंग-परम्परा का काल ६८३ वर्ष ही बना रहे और उसमें अर्हद्वलि आदि संघ-भेद से सम्बन्ध रखने वाले आचार्य भी न दिखाये जावें।
प्रश्न यह है कि क्या हम इस पट्टावली को प्रमाण मान सकते है, विशेषत: जब कि उसकी वार्ता प्रस्तुत ग्रन्थों व श्रुतावतारादि अन्य प्रमाणों के विरुद्ध जाती है ? इस पट्टावली की जांच करने के लिये हमने सिद्धान्तभवन आरा को उसकी मूल हस्तलिखित प्रति भेजने के लिये लिखा किन्तु वहां से पं. भुजबलिजी शास्त्री सूचित करते हैं कि बहुत खोज करने पर