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३१. घरसेन
एक अंगधारी १९
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २७. भद्रबाहु आठ अंगधारी २३ २८. लोहाचार्य , ५२ (५०) ।
९९ (९७) २९. अर्हद्वलि एक अंगधारी २८ ३०. माघनन्दि , २१
३३. भूतबलि
कुल जोड़
६८३
नन्दि-आम्नायकीपावली की विशेषताएं -
__ इस पट्टावलीमें प्रत्येक आचार्य का समय अलग अलग निर्दिष्ट किया गया है, जो अन्यत्र नहीं पाया जाता और समष्टि रूप से भी वर्ष संख्यायें दी गई हैं। प्रथम तीन केवलियों, पांच श्रुतकेवलियों और ग्यारह दशपूर्वियों का समय क्रमशः वहीं ६२, १०० और १८३ वर्ष बतलाया गया है और इसका योग ३४५ वर्ष कहा है । किन्तु दशपूर्वधारी एक-एक आचार्य का जो काल दिया है उसका योग १८१ वर्ष आता है । अतएव स्पष्टत: कहीं दो वर्ष की भूल ज्ञात होती है, क्योंकि, नहीं तो यहां तक का योग ३४५ वर्ष नहीं आ सकता । इसके आगे जिन पांच एकादशांगधारियों का समय अन्यत्र २२० वर्ष बतलाया गया है उनका समय यहां १२३ वर्ष दिया है । इनके पश्चात् आगे के जिन चार आचार्यों को अन्यत्र एकांगधारी कह कर श्रुतज्ञान की परम्परा पूरी कर दी गई है उन्हें यहां क्रमश: दश, नव और आठ अंग के धारक कहा है, पर यह स्पष्ट नहीं किया गया कि कौन कितने अंगों का ज्ञाता था। इससे दश अंगों का अचानक लोप नहीं पाया जाता जैसा कि अन्यत्र । इनका समय ११८ वर्ष के स्थान पर ९७ वर्ष बतलाया गया है। पर आचार्यों का समय जोड़ने से ९९ आता है अत: दो वर्ष की यहां भी भूल है । तथा उनसे आगे पांच और आचार्यों के नाम गिनाये गये हैं जो एकांगधारी कहे हैं। उनके नाम अहिवल्लि (अर्हद्वलि) माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि है । इनका समय क्रमशः २८, २१, १९, ३० और २० वर्ष दिया गया है जिसका योग ११८ वर्ष होता है । इससे पूर्व श्रुतावतार में विनयधर आदि जिन चार आचार्यों के नाम दिये गये हैं वे यहां नहीं पाये जाते। इस प्रकार इस पट्टावली के अनुसार भी अंग -परंपरा का कुल काल ६२ +१०० + १८३ +१२३ + ९७ +११८ = ६८३ वर्ष ही आता है जितना कि अन्यत्र बतलाया गया है। परन्तु भेद यह है कि अन्यत्र यह काल लोहाचार्य तक ही पूरा कर दिया गया है और यहां पर उसके अन्तर्गत वे पांच आचार्य भी हो जाते हैं जिनके भीतर हमारे ग्रंथकर्ता धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि भी सम्मिलित हैं।