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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३५ संपहि चोदसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसि चेव परिमाणं पडिवोहणठं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह ।
अर्थात् - 'अब चौदह जीवसमासों के अस्तित्व को जान लेने वाले शिष्यों को उन्हीं जीवसमासों के परिमाण बतलाने के लिये भूतबलि आचार्य सूत्र कहते हैं।
इस प्रकार सत्प्ररूपणा अधिकार के कर्ता पुष्पदन्त और शेष समस्त ग्रंथ के कर्ता भूतबलि ठहराते हैं। श्रुतपंचमी का प्रचार -
धवला में इस ग्रंथ की रचना का इतना ही इतिहास पाया जाता है । इससे आगे का वृत्तान्त इन्द्रनदिकृत श्रुतावतार में मिलता है । उसके अनुसार भूतबलि आचार्य ने षट्खण्डागम की रचना पुस्तकारुढ़ करके ज्येष्ठ शुक्ल ५ को चतुर्विध संघ के साथ उन पुस्तकों को उपकरण मान श्रुतज्ञान की पूजा की जिससे श्रुतपंचमी तिथि की प्रख्याति जैनियों में आज तक चली आती है और उस तिथि को वे श्रुत की पूजा करते हैं । फिर भूतबलि ने उन षट्खण्डागम पुस्तकों को जिनपालित के हाथ पुष्पदन्त गुरु के पास भेजा । पुष्पदन्त उन्हें देखकर और अपने चिन्तित कार्य को सफल जान अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने भी चातुर्वर्ण संघहित सिद्धान्त की पूजा की।
आचार्य-परम्परा धरसेनाचार्य से पूर्व की गुरु-परम्परा - .
__अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि धरसेनाचार्य और उनसे सिद्धान्त सीखकर ग्रंथ रचना करने वाले पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य कब हुए ? प्रस्तुत ग्रंथ में इस सम्बध की कुछ सूचना महावीर स्वामी से लगाकर लोहाचार्य तक की परम्परा से मिलती है । बह परम्परा इस प्रकार है, महावीर भगवान् के पश्चात् क्रमश: गौतम, लोहार्य और जम्बूस्वामी
१ ज्येष्ठसितपक्षपञम्यां चातुर्वर्ण्यसंघसमवेत: । तत्पुस्तकोपकरणैर्व्यधात् क्रियापूर्वक पूजाम् ॥ १४३ ॥ श्रुतपञमीति तेन प्रख्यातिं तिथिरियं परमाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैना: ॥ १४४॥
इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार