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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका जिनपालित कहां से आ गये ? द₹ण का अर्थ दृष्टु अर्थात् देखने के लिये भी हो सकता है, जिसका तात्पर्य यह होगा कि पुष्पदन्त अंकुलेश्वर से निकलकर जिनपालित को देखने के लिये वनवास चले गये । संगति की दृष्टि से यह अर्थ ठीक बैठता है । इन्द्रनन्दिने जिनपालित को पुष्पदन्त का भागिनेय अर्थात् भनेज कहा है । पर इस रिश्ते के कारण वे उन्हें देखने के लिये गये यह कदाचित् साधु के आचार की दृष्टि से ठीक न समझा जाय इसलिये वैसा अर्थ नहीं किया । वनवास देश सेही वे गिरिनगर गये थे और वहां से फिरा वनवास देश को ही लौट गये । इससे यही प्रान्त पुष्पदन्ताचार्य की जन्मभूमि ज्ञात होती है । वहां पहुंचकर उन्होंने जिनपालित को दीक्षा दी और 'बीसादि सूत्रों' की रचना करके उन्हें पढ़ाया, और फिर उन्हें भूतबलि के पास भेज दिया । भूतबलि ने उन्हें अन्पायु जान, महाकर्म प्रकृति पाहुड़ के विच्छेद-भय से द्रव्यप्रमाण से लगाकर आगेकी ग्रन्थ-रचना की। इस प्रकार पुष्पदन्त और भूतबलि दोनों इस सिद्धान्त ग्रंथ के रचयिता हैं और जिनपालित उस रचना के निमित्त कारण हुए। पुष्पदन्त भूतबलि से जेठे थे -
पुष्पदन्त और भूतबलि बीच आयु में पुष्पदन्त ही जेठे प्रतीत होते हैं। धवलाकार ने अपनी टीका के मंगलाचरण में उन्हें ही पहले नमस्कार किया है और उन्हें 'इसि-समिइवइ' (ऋषिसमिति-पति) अर्थात ऋषियों व मुनियों की सभा के नायक कहा है। उनकी ग्रंथरचना भी आदि में हुई और भूतबलि ने अपनी रचना अन्तत: उन्हीं के पास भेजी जिसे देख वे प्रसन्न हुए। इन बातों से उनका ज्येष्ठत्व पाया जाता है । नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली में वे स्पष्टतःभूतबलि से पूर्व पट्टाधिकारी हुए बतलाये गये हैं। पुष्पदन्त और भूतबलि के बीच किसने कितना ग्रंथ रचा -
वर्तमान ग्रंथ में पुष्पदन्त की रचना कितनी है और भूतबलि कितनी, इसका स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है । पुष्पदन्त ने आदि के प्रथम 'वीसदि-सूत्र' रचे । पर इन वीस सूत्रों से धवलाकार समस्त सत्प्ररूपणा के बीस अधिकारोंसे तात्पर्य है, न कि आदि के २० नम्बर तक के सत्रों से, क्योंकि, उन्होंने स्पष्ट कहा है कि भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम से लेकर रचना की (पृ. ७१) । जहां से द्रव्य प्रमाणानुगम अर्थात संख्याप्ररूपणा प्रारंभ होती है वहां पर भी कहा गया है कि -
१ जैसे, रामो तिसमुद्दमेहलं पुहई पालेऊग समत्थो । पउम च. ३१, ४०, संसार-गमण-भीओ इच्छइ
घेत्तूण पव्वजं । पउम च. ३१, ४८