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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ५०१ २१. निकाचित-अनिकाचित - इन अनुयोगद्वार में बतलाया है कि जिस प्रदेशाग्रका न तो अपकर्षण होता है, न उत्कर्षण होता है, न अन्य प्रकृतिरूप से संक्रमण होता है और न उदीरणा होती है। जिसके ये चारों नहीं होते उसकी निकाचित संज्ञा है । यह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है । इसके विषय में भी यह नियम है कि पूर्वोक्तप्रकार से अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करने पर सब कर्म अनिकाचित हो हैं । किन्तु इसके पूर्व वे निकाचित और अनिकाचित दोनों प्रकार के होते हैं । इन निकचित और अनिकाचित प्रदेशाओं की भी चौबीस अनुयोगद्वारोंके आश्रय से प्ररूपणा करनी चाहिए। यहाँ उपशान्त, निधत्त और निकाचित के सन्निकर्ष का कथन करते हुए बतलाया है कि जो प्रदेशाग्र अप्रशस्त उपशामनारूप से उपशान्त है वह न निधत्त है और न निकाचित है । जो निधत्त प्रदेशाग्र है वह न उपशान्त है और न निकाचित है । तथा जो I निकाचित प्रदेशाग्र है वह न उपशान्त है और न निधत्त है । आगे अधःप्रवृत्तसंक्रम के साथ इन तीनों के अल्पबहुत्व का निर्देश करके यह अनुयोगद्वार समाप्त किया गया है । २२. कर्मस्थिति - इन अनुयोगद्वार के विषय में दो उपदेशों का निर्देश करके यह अनुयोगद्वार समाप्त किया गया है। पहला उपदेश नागहस्ति के मत के अनुसार निर्दिष्ट किया है और दूसरा उपदेश आर्यमंक्षु के मत का निर्देश करता है । नागहस्तिक्षमाश्रमणका कहना है कि कर्मस्थिति अनुयोगद्वार में कर्मों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के प्रमाण कथन किया जाता है और आर्यमंक्षु का कहना है कि इसमें कर्मस्थिति के भीतर सच्चित हुए सत्कर्म की प्ररूपणा की जाती है । २३. पश्चिमस्कन्ध - इस अनुयोगद्वार में तीन भवों में से भवग्रहणभव को प्रकृत बतलाकर चरम भव में जीव के सब कर्मों की बन्धमार्गणा, उदयमार्गणा, उदीरणमार्गणा, संक्रममार्गणा और सत्कर्ममार्गणा इन पाँच मार्गणाओं का विचार किया जाता है यह बतलाया गया है। इसके आगे जो जीव सिद्ध होता है उसकी अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रह जाने पर तेरहवें गुणस्थान में कर्मों की और आत्मप्रदेशों की किस क्रम से क्या-क्या क्रिया होती है तथा चौदहवें गुणस्थान में यह जीव किस रूप से कितने काल तक अवस्थित रहकर कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध होता है यह बतलाया गया है । इस प्रकार इन सब बातों का विवेचन करने के बाद यह अनुयोगद्वार समाप्त किया गया है । २४. अल्पबहुत्व - इन अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में यह सूचना की है कि नागहस्ति भट्टारक इसमें सत्कर्म काविचार करते हैं । वीरसेन स्वामी ने इस उपदेश को प्रवृत्तमान बतला कर इसके अनुसार सत्कर्म के प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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