SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ५०० जाकर आयुकर्मके द्वारा धारण किया जाता है, अतएव भवधारणीय आयुकर्म ठहरता है । इसका पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व को आलम्बन लेकर विस्तार से विचार वेदना अनुयोगद्वार में किया है, इसलिए उस सब व्याख्यान को वहाँ से जान लेना चाहिए । इस प्रकार भवग्रहणभव के व्याख्यान करने में यह अनुयोगद्वार चरितार्थ है । + १९. पुद्गलात्त - इसमें पुद्गल के चार निक्षेप करके प्रकृत में नोआगमतद्वचतिरिक्त द्रव्यपुद्गल का विचार करते हुए बतलाया गया है कि पुद्गलात्त अर्थात् पुद्गलों का आत्मसात्कार छह प्रकारसे होता है - ग्रहण से, परिणाम से, उपभोग से, आहार से, ममत्व से और परिग्रह से । इनका खुलासा करते हुए बतलाया है कि हाथ और पैर आदि से ग्रहण किये गये दण्ड आदिपुद्गल ग्रहण से आत्तपुद्गल हैं । मिथ्यात्व आदि परिणामों से अपने किये गये पुद्गल परिणाम से आत्तपुद्गल हैं । मिथ्यात्व आदि परिणामों से अपने किये गये पुद्गल परिणाम से आत्तपुद्गल हैं । उपभोग से अपने किये गये गन्ध और ताम्बूल आदि पुद्गल उपभोग से आत्तपुद्गल हैं। खान-पान के द्वारा अपने किये गये पुद्गल आहार से आत्तपुद्गल हैं । अनुराग से ग्रहण किये गये पुद्गल ममत्व से आत्तपुद्गल हैं और स्वाधीन पुद्गल परिग्रह से आत्तपुल हैं । इन सबका वर्णन इस अनुयोगद्वार में किया गयाहै । अथवा पुद्गलात्त का अर्थ पुद्गलात्मा है। पुद्गलात्मा से रूपादि गुणवाला पुद्गल लिया गया है । अत: उसके गुणों की षट्स्थानपतित वृद्धि आदि का इस अनुयोगद्वार में विचार किया गया है । २०. निधत्त - अनिधत्त - इस अनुयोगद्वार में बतलाया है कि जिस प्रदेशाग्रका उत्कर्षण और अपकर्षण तो होता है पर उदीरणा और अन्य प्रकृतिरूप से संक्रमण नहीं होता उसकी निधत्त संज्ञा है । प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से निधत्त भी चार प्रकार का है और अनिधत्त भी चार प्रकार का है। इस विषय में यह नियम है कि दर्शनमोहनीय की उपशामना या क्षपणा करते समय मात्र दर्शनमोहनीय कर्म अनिवृत्तिकरण में अनिधत्त हो जाता है । अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते समय मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्क अनिवृत्ति करण में अनिधत्त हो जाता है और चारित्रमोहनीय की उपशामना और क्षपणा करते समय अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में सबकर्म अनिधत्त हो जाते हैं। तथा अपने अपने निर्दिष्ट स्थान के पूर्व दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और शेष सब कर्म निधत्त और अनिधत्त दोनों प्रकार के होते हैं । यह अर्थपद है, इसके अनुसार चौबीस अनुयोगद्वारों का आश्रय लेकर इस अनुयोगद्वार का कथन करना चाहिए ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy