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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४९९ पदमीमांसा में इनके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदों के अस्तित्व की सूचना मात्र की गई है । स्वामित्व में इन उत्कृष्ट आदि भेद रूप एकान्त सात आदि के स्वामित्व का निर्देश किया गया है । तथा अन्त में प्रमाण का विचार कर अल्पबहुत्व का निर्देश करते हुए इस अनुयोगद्वार को समाप्त किया गया है। १७. दीर्घ-हस्व - इसमें दीर्घ को प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का बतला कर उनका बन्ध, उदय और सत्व की अपेक्षा विचार किया गया है। सर्वप्रथम मूलप्रकृतिदीर्घ के प्रकृतिस्थानदीर्घ और एकैकप्रकृतिस्थानदीर्घ ये दो भेद करके प्रकृतिस्थान का विचार करते हुए बतलाया है कि आठ प्रकृतियों का बन्ध होने पर प्रकृतिदीर्घ और उनसे न्यून प्रकृतियों का बन्ध होने पर नोप्रकृतिदीर्घ होता है । इसी प्रकार उदय और सत्व की अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ और नोप्रकृतिदीर्घ को घटित करके बतला कर उत्तरप्रकृतियों में से किस मूलकर्म की उत्तर प्रकृतियों में बन्धकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ सम्भव नहीं है और किसकी उत्तर प्रकृतियों में प्रकृतिदीर्घ और नोप्रकृतिदीर्घ सम्भव है यह बतलाया गया है । आगे स्थितिदीर्घ, अनुभागदीर्घ और प्रदेशदीर्घ को भी बतलाया गया है । आगे दीर्घ के समान हृस्व के भी चार भेद करके उनका विचार किया गया है । उदाहरणार्थ बन्ध की अपेक्षा प्रकृतिहस्व का निर्देश करते हुए बतलाया है कि एक-एक प्रकृति का बन्ध करने वाले के प्रकृतिहस्व होता है और इससे अधिक का बन्ध करने वाले के नोप्रकृतिहस्व होता है । इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियों का आलम्बन लेकर बन्ध, उदय और सत्व की अपेक्षा दीर्घ और ह्रस्व के विचार करने में इस अनुयोगद्वार की प्रवृत्ति १८. भवधारणीय - इस अनुयोगद्वार में भव के ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव ये तीन भेद करके बतलाया है कि आठ कर्म और आठ कर्मों के निमित्त से उत्पन्न हए जीव के परिणाम को ओघभाव कहते हैं। चार गति नामकर्म और उनसे उत्पन्न हुए जीव के परिणाम को आदेशभव कहते हैं। इनके अनुसार आदेशभव चार प्रकार का हैनारक भव,तिर्यच्चभव, मनुष्यभव और देवभव । तथा भुज्यमान आयु गलकर नई आयु का उदय होने पर प्रथम समय में उत्पन्न हुए व्यञ्जजन संज्ञावाले जीव के परिणाम को या पूर्वशरीर का त्याग होकर नूतन शरीर के ग्रहण को भवग्रहणभव कहते हैं। प्रकृत में भवग्रहणभव का प्रकरण है। यद्यपि जीव अमूर्त है फिर भी उसका कर्म के साथ अनादि सम्बन्ध होने से संसार अवस्था में वह मूर्तभाव को प्राप्त हो रहा है, इसलिए अमूर्त जीव का मूर्त कर्म के साथ बन्ध बन जाताहै । ऐसा यह जीव शेष कर्मों के द्वारा न धारण किया
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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