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________________ ४९८ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका प्रकार से वर्णन करके अन्त में तीव्रता और मन्दता की अपेक्षा अल्पबहुत्व बतलाकर यह अधिकार समाप्त किया गया है। १४. लेश्याकर्म - कृष्णादि लेश्याओं में से जिसके आलम्बन से मारण और विदारण आदि जिस प्रकार की क्रिया होती है उसके अनुसार उसका वह लेश्याकर्म माना गया है। उदाहरणार्थ कृष्णलेश्या से परिणत हुआ जीव निर्दय, कलहशील, रौद्र, अनुबद्धवैर, चोर, चपल, परस्त्री में आसक्त, मधु, मांस और सुरा में विशेष रुचि रखनेवाला, जिन शासन के सुनने में अतत्पर और असयंमी होता है। इसी प्रकार अन्य लेश्याओं का अपनेअपने नामानुरूप कर्म जानना चाहिए । इस प्रकार इस अधिकार में लेश्याकर्म का विचार किया गया है। १५. लेश्यापरिणाम - कौन लेश्या किस रूप से अर्थात् किस वृद्धि या हानिरूप से परिणत होती है इस बात का विचार इस अधिकार में किया गया है। इसमें बतलाया है कि कृष्णलेश्या में षट्स्थानपतित संक्लेश की वृद्धि होने पर उसका अन्य लेश्या में संक्रमण न होकर स्वस्थान में ही संक्रमण होता है । मात्र विशुद्धि की वृद्धि होने पर उसका अन्य लेश्या में भी संक्रमण होता है और स्वस्थान में भी संक्रमण होता है। इतना अवश्य है कि कृष्णलेश्या में से नीललेश्या में आते समय नियम से अनन्तगुणहानि होती है । नीललेश्या में संक्लेश की वृद्धि होने पर स्वस्थान संक्रमण भी होता है और नील से कृष्णलेश्या में भी संक्रमण होता है । तथा विशुद्धि होने पर नीललेश्या से कृष्ण लेश्या में जाते समय संक्लेश की अनन्तगुणी वृद्धि होती है और नील से कापोत लेश्या में आते समय संक्लेश की अनन्तगुणी हानि होती है। इसी प्रकार शेष चार लेश्याओं में भी परिणाम का विचार कर लेना चाहिए । इस प्रकार इस अधिकार में परिणाम का विचार कर तीव्रता और मन्दता की अपेक्षा संक्रम और प्रतिमह के अल्पबहुत्व का विचार करते हुए इस अधिकार को समाप्त किया गया है। १६. सातासात- इन अनुयोगद्वार का यहाँ पर पाँच अधिकारों के द्वारा विचार किया गया है वे पाँच अधिकार ये हैं - समुत्कीर्तना,अर्थपद, पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व समुत्कीर्तना में बतलाया गया है कि एकान्त सात और अनेकान्त सातके भेद से सात दो प्रकार का है । तथा इसी प्रकार एकान्त असात और अनेकान्त असात के भेद से असात भी दो प्रकार का है । अर्थपद का निर्देश करते हुए बतलायाहै कि जो कर्म सातरूप सेबद्ध होकर यथावस्थित रहते हुए वेदा जाता है वह एकान्त सातकर्म है और इससे अन्य अनेकान्त सातकर्म हैं । इसी प्रकार जो कर्म असातरूप से बद्ध होकर यथावस्थित रहते हुए वेदा जाता है वह एकान्त असात कर्म है और इससे अन्य अनेकानत असातकर्म है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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