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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४९७ लेश्या में किस क्रम से कौन-कौन गुण होते हैं इसका स्पष्टीकरण तालिका द्वारा कराया जाता है | लेश्या १ कृष्णाले० शुक्ल पीत लाल नील कृष्ण | नीलले ० शुक्ल पीत लाल कृष्ण नील | कापोतले ० शुक्ल पीत कृष्ण लाल नील कापोतले० शुक्ल कृष्ण पीत नील लाल कापोतले० कृष्ण शुक्ल नील पीत लाल पीतले ० कृष्ण नील शुक्ल पीत लाल पद्यले ० कृष्ण नील शुक्ल लाल पीत पद्यले ० कृष्ण नील लाल शुक्ल पीत पद्यले ० कृष्ण नील लाल पीत शुक्ल शुक्लले० कृष्ण नील लाल पीत शुक्ल २ ३ ४ ५ इन लेश्याओं में से जिसमें सर्वप्रथम गुणका निर्देश किया है वह उसमें सबसे तोक है और आगे के गुण उस लेश्या में उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं । कापोत और पद्यलेश्या तीन-तीन प्रकार से निष्पन्न होती हैं। शेष लेश्याऐं एक ही प्रकार से निष्पन्न होती हैं । तथा कापोत लेश्या में द्विस्थानिक अनुभाग होता है और शेष लेश्याओं में द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु: स्थानिक अनुभाग होता है । मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से उत्पन्न हुए जीव के संस्कारविशेष का नाम भाव लेश्या है । द्रव्यलेश्या के समान ये भी छह प्रकार की होती हैं । उनमें से कापोत लेश्या तीव्र होती है, नीललेश्या तीव्रतर होती है और कृष्णलेश्या तीव्रतम होती है । पीतलेश्या मन्द होती है, पद्यलेश्या मन्दतर होती है और शुक्ललेश्या मन्दतम होती है । ये छहों लेश्याऐं षट्स्थानपतित हानि-वृद्धि को लिए हुए होती हैं । तथा इनमें भी कापोतलेश्या द्विस्थानिक अनुभाग को लि हुए होती हैं और शेष पाँच लेश्याएँ द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक अनुभाग को लिए हुए होती हैं। इस प्रकार इस अधिकार में लेश्याओं का उक्त
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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