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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४९४ विशेष जानना चाहिए कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेद की यत्स्थिति उदयावलि अधिक न कहकर अन्तर्मुहूर्त अधिक कहनी चाहिए, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों की क्षपणा की समाप्ति अन्तरकरण में रहते हुए होती है और अन्तरकरण का काल उस समय अन्तर्मुहुर्त शेष रहता है इसलिए यह स्पष्ट है कि अन्तरकरण में इनके प्रदेशों का अभाव होने से यस्थिति इतनी बढ़ जाती है । निद्रा और प्रचला की स्थिति दो आवलि और एक आबलि का असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर इनकी मात्रा उपरितन एक स्थिति का संक्रम होता है ऐसा स्वभाव है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थिति और यस्थितिसंक्रम आवलि का असंख्यातवाँ भाग अधिक दो आबलि होता है । हास्यादि छह की क्षपणा के अन्तिम समय में जघन्य स्थिति संख्यात वर्षप्रमाण होती है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम संख्यात वर्ष प्रमाण होता है। पर इनकी क्षपणा की समाप्ति भी अन्तरकरण में रहते हए होती है और उस समय अन्तरकरण का काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, इसलिए इनकी यस्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक असंख्यात वर्ष होती है । क्रोधसंज्वलन का जघन्य स्थितिबन्ध दो महीना प्रमाण होता है, मानसंज्वलन का जघन्य स्थितिबन्ध एक महीनाप्रमाण होता है, मायासंज्वलन का जघन्य स्थितिबन्ध अर्धमासप्रमाण होता है और पुरुषवेद का जघन्य स्थितिबन्ध आठ वर्ष प्रमाण होताहै । इन प्रकृतियों के उक्त स्थितिबन्ध में से अलग-अलग अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अबाधाकाल के कम कर देने पर उनके जघन्य स्थिति संक्रम का प्रमाण आ जाता है जो क्रमश: अन्तर्मुहूर्त कम दो माह अन्तर्मुहूर्त कम एक माह, अन्तर्मुहूर्त कम अर्धमास और अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष प्रमाण होता है। तथा इनका यस्थितिसंक्रम क्रम से दो आवलि कम दो माह, दो आवलि कम एक माह, दो आवलि कम अर्धमास और दो आवलि कम आठ वर्षप्रमाण होता है, क्योंकि अपना-अपना जघन्यस्थितिबन्ध होने पर उसका एक आवलि काल तक संक्रम नहीं होता, इसलिए अपने-अपने जघन्य स्थितिबन्ध में से एक आवलि तो यह कम हो गई और संक्रम प्रारम्भ होने पर वह एक आवलि काल तक होता रहता है, इसलिए एक आवलि यह कम हो गई। अतः इन प्रकृतियों के जघन्य यस्थितिसंक्रम का प्रमाण अपने-अपने जघन्य स्थितिबन्ध में से दो आवलि कम करने पर जो प्रमाण शेष रहे उतना प्राप्त होता है । अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनकी जघन्य स्थिति सयोगिकेवली के अन्तिम समय में अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है, इसलिए वहाँ पर उसमें से उदयावलिप्रमाण स्थिति को छोड़कर शेष स्थिति का संक्रमण सम्भव होने से उनका जघन्य स्थितिसंक्रम उदयावलि कम अन्तर्मुहर्त प्रमाण और यस्थितिसंक्रम उदयावलिसहित अन्तर्मुहुर्तप्रमाण होता है । यहाँ पर मूल में इन प्रकृतियों की यस्थिति तथा स्त्यानगृद्धित्रिक आदि बत्तीस
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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