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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४९५ प्रकृतियों की यत्स्थिति नहीं बतलाई गई है । किन्तु वह सम्भव है, इसलिए हमने उनका अलग से निर्देश कर दिया है । तथा मूल में देवगति आदि का जघन्य स्थितिसंक्रम बतलाते समय जो प्रकृतियाँ परिगणित की गई हैं उनमें तीन आङ्गोपाङ्ग भी परिगणित किये जाने चाहिए, क्योंकि इनका जघन्य स्थितिसंक्रम भी सयोगिकेवली के अन्तिम समय में होता है। आगे जो जघन्य स्थितिसंक्रम का स्वामित्व कहा है उससे भी यह बात स्पष्ट हो जाती इस प्रकार प्रमाणानुगम का निर्देश करने के बाद जघन्य और उत्कृष्ट भेदों का आश्रयकर स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भङविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर और अल्पबहुत्व का निर्देश करके भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन अनुयोगद्वारों का संक्षेप में निरूपण किया है। इस प्रकार स्थितिसंक्रम का विचार कर आगे अनुभागसंक्रम का प्रकरण प्रारम्भ होता है। इसमें सब कर्मों को देशघाति, सर्वघाति और अघाति इन भेदों में विभक्तकर इनके आदि स्पर्धक परस्पर में किनके समान हैं और किनके किस क्रम से प्राप्त होते हैं यह बतलाकर उत्कर्षण से प्राप्तहोनेवाला अनुभाग अनुभागसंक्रम है, अपकर्षण से प्राप्त होनेवाला अनुभाग अनुभागसंक्रम है और अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होकर प्राप्त होने वाला अनुभाव अनुभागसंक्रम है इस अर्थपद का निर्देश किया गयाहै । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि. मूल प्रकृतियों में उत्कर्षण और अपकर्षण इन दो प्रकारों से और उत्तर प्रकृतियों में यथासम्भव तीनों प्रकारों से अनुभागसंक्रम होता है । ____ आगे अपकर्षण से प्राप्त होने वाले अनुभागसंक्रम का निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि आदि स्पर्धक का अपकर्षण नहीं होता, क्योंकि इसके नीचे जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापना का अभाव है। इसी प्रकार जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापना के अन्तर्गत जितने स्पर्धक हैं उनका अपकर्षण नहीं होता । मात्र इनके ऊपर जो स्पर्धक अवस्थित हैं उनका अपकर्षण होता है क्योंकि इनकी अतिस्थापना और निक्षेप पाये जाते हैं। इतना निर्देश करने के बाद यहाँ प्रकृत विषय में उपयोगी अल्पबहुत्व दिया गया है । - आगे उत्कर्षण के विषय में यह नियम दिया है कि चरम स्पर्धक की स्थापना और निखेप का अभाव है, इसलिए जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाप्रमाण स्पर्धक नीचे सरककर जो स्पर्धक अवस्थित है उसका उत्कर्षण होता है । इसके आगे अपकर्षण और
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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