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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४९३ किया है। उसका भाव यह है कि आयबन्ध होते समय बन्धावलिप्रमाणकाल जाने पर आयुबन्ध के प्रथम समय में बँधे हुए कर्म का उत्कर्षण होने पर उनकी अबाधा सहित उत्कृष्ट यत्स्थिति उक्त कालप्रमाण प्राप्त होती है । यह एक समाधान है । तथा 'अथवा' कहकर दूसरा समाधान इस प्रकार किया है कि बन्धावलि के बाद आयु की निर्व्याघातरूप अपवर्तना (अपकर्षण) भी सर्वदा सम्भव है, इसलिए उसकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रमाण यस्थिति जान लेनी चाहिए । अभिप्राय इतना ही है कि पूर्वकोटि की आयु वाले मनुष्य के प्रथम त्रिभाग में परभवसम्बन्धी उत्कृष्ट आयु का बन्ध होने पर उसकी निषेक रचना तो नरकायु और देवायुकी तेतीस सागरप्रमाण तथा तिर्यश्चायु और मनुष्यायु की तीन पल्यप्रमाण ही रहती है। आबाधाकाल पूर्वकोटि का त्रिभाग इससे अलग है इसलिए इनका जो स्थितिबन्ध है वही स्थितिसंक्रम है। पर इनके बन्ध के प्रथम समय से लेकर एक आवलि काल जाने पर इन निषेकस्थितियों में बन्ध होते समय उत्कर्षण और बन्ध होते समय या बन्ध समय के बाद भी अपकर्षण होने लगता है । अत: इस उत्कर्षण और अपकर्षण में एक स्थिति से प्रदेशसमूह उठकर दूसरी स्थिति में निक्षिप्त होते समय स्थिति के परिमाण के अबाधाकाल भी गर्भित हैं। पर यह उत्कर्षण और अपकर्षण बन्ध के प्रथम समय से लेकर एक आवलिकाल तक सम्भव नहीं है । यही कारण है कि आयुकर्म की यस्थिति कहते समय नरकायु आदि की अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में एक आवलिकम उत्कृष्ट आबाधाकाल भी सम्मिलित कर लिया है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम के प्रमाण का अनुगम करने के बाद जघन्य स्थितिसंक्रम के प्रमाण का निर्देश किया है । खुलासा इस प्रकार है - पाँच ज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण आदि चार दर्शनावरण, सम्यक्त्व, संज्वलन लोभ, चार आयु और पाँच अन्तराय इनकी एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति शेष रहने पर उदयावलि से उपरितन एक समयमात्र स्थिति का अपकर्षण होता है, इसलिए उनका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थितिप्रमाण है और यत्स्थितिसंक्रम समयाधिक एक आवलिप्रमाण है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, नरकगतिद्विक, तिर्यंञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इनकी क्षपणा होने के अन्तिम समय में जघन्य स्थिति पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण होती है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम उक्त प्रमाण कहा है। परन्तु क्षपणा के अन्तिम समय में इनके उदयावलि में स्थित निषेकों का संक्रम नहीं होता, इसलिए उक्त काल में उदयावलि के मिला देने पर इनकी यत्स्थिति उदयावलि अधिक पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण होती है । यहाँ इतना
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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