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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका उल्लेख किया गया है, पर धरसेन का नहीं। अत: संशय हो सकता है कि ये वे ही धरसेन के गुरु हैं या नहीं। किंतु उनके 'पूर्वपदांशवेदी' अर्थात् पूर्वो के एकदेश को जानने वाले ऐसे विशेषण से पता चलता है कि ये वे ही हैं। पट्टावली में उनके शिष्य धरसेन का उल्लेख न आने का कारण यह हो सकता है कि धरसेन विद्यानुरागी थे और वे संघ से अलग रहकर शास्त्राभ्यास किया करते थे। अत: उनकी अनुपस्थिति में संघ का नायकत्व माघनन्दि के अन्य शिष्य जिनचन्द्र पर पड़ा हो । उधर धरसेनाचार्य ने अपनी विद्या द्वारा शिष्य परम्परा पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा चलाई। ___ माघनन्दिका उल्लेख 'जंबूदीवपण्णत्ति' के कर्ता पद्यनन्दिने भी किया है और उन्हें, राग, द्वेष और मोह से रहित, श्रुतसागर के पारगामी, मति-प्रगल्भ, तप और संयम से सम्पन्न तथा विख्यात कहा है । इनके शिष्य सकलचंद्र गुरु थे जिन्होंने सिद्धान्तमहोदधि में अपने पापरूपी मैल धो डाले थे । उनके शिष्य श्रीनन्दि गुरु हुए जिनके निमित्त जंबूदीवपण्णत्ति लिखी गई। यथा - गय-राय-दोस-मोहो सुद-सायर-पारओ मइ-पगब्भो। तव-संजम-संपण्णो विक्खाओ माधनंदि गुरू ॥१५४॥ तस्सेव य वरसिस्सो सिद्धंत-महोदहिम्मि धुय-कलुसो। णय-णियम-सील-कलिदो गुणउत्तो सयलचंद-गुरू ॥ १५५ ॥ तस्सेव य वर-सिस्सो णिम्मल-वर-णाण-चरण-संजुत्तो। सम्मइंसण-सुद्धो सिरिणंदि गुरु त्ति विक्खाओ ॥१५६ ॥ तस्स णिमित्तं लिहियं जंबूदीवस्स तह य पण्णत्ती। जो पढइ सुणइ एदं सो गच्छइ उत्तमं ठाणं ॥ १५७ ॥ (जैन साहित्य संशोधक, खं. १. जंबूदीवपण्णत्ति, लेखक पं. नाथूरामजी प्रेमी) जंबूदीवपण्णत्तिका रचनाकाल निश्चित नहीं है। किन्तु यहां माघनन्दि को श्रुतसागर पारगामी कहा है जिससे जान पड़ता है कि संभवत: यहां हमारे माघनन्दि से ही तात्पर्य है। माधनन्दि सिद्धान्तवेदी के संबन्ध का एक कथानक भी प्रचलित है । कहा जाता है कि माघनन्दि मुनि एकबार चर्या के लिये नगर में गये थे । वहां एक कुम्हार की कन्या ने इनसे प्रेम प्रगट किया और वे उसी के साथ रहने लगे । कालान्तर में एक बार संघ में किसी सैद्धान्तिक विषय पर मत भेद उपस्थित हुआ और जब किसी से उसका समाधान नहीं हो सका तब संघनायक ने आज्ञा दी कि इसका समाधान माघनान्दि के पास जाकर किया जाय।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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