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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३१ अत: साधु माघनन्दि के पास पहुंचे और उनसे ज्ञान की व्यवस्था मांगी । माघनन्दि ने पूछा 'क्या संघ मुझे अब भी यह सत्कार देता है ? मुनियों ने उत्तर दिया आपके श्रुतज्ञान का सदैव आदर होगा।' यह सुनकर माघनन्दि को पुनः वैराग्य हो गया और वे अपने सुरक्षित रखे हुए पीछी कमंडलु लेकर पुनः संघ में आ मिले । जैन सिद्धान्तभास्कर, सन् १९१३, अंक ४, पृष्ठ १५१ पर ‘एक ऐतिहासिक स्तुति' शीर्षक से इसी कथानक का एक भाग छपा है और उसके साथ सोलह श्लोकों की एक स्तुति छपी है जिसे, कहा गया है कि, माघनन्दि ने अपने कुम्हार जीवन के समय कच्चे घड़ों पर थाप देते समय गाते गाते बनाया था । यदि इस कथानक में कुछ तथ्यांश हो भी तो संभवत: यह उन माघनन्दि नाम के आचार्यों में से किसी एक के सम्बन्ध का हो सकता है जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के अनेक शिलालेखों में आया है। (देखो जैन शिलालेख संग्रह) इनमें से नं. ४७१ के शिलालेख शुभचंद्र विद्यदेव के गुरु माघनन्दि सिद्धान्तदेव कहे गये हैं । शिलालेख नं. १२९ में बिना किसी गुरु-शिष्य संबन्ध के माघनन्दि को जगत्प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदी कहा है । यथा नमो नम्रजनानन्दस्यन्दिने माघनन्दिने । जगत्प्रसिद्धसिद्धान्तवेदिने चित्प्रमोदिने ॥ ४ ॥ आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि - ये दोनों आचार्य हमारे षट्खण्डागम के सच्चे रचयिता हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में इनके प्रारम्भिक नाम, धाम व गुरु-परम्परा का कोई परिचय नहीं पाया जाता । धवलाकार ने उनके संबन्ध में केवल इतना ही कहा है कि जब महिमा नगरी में सम्मिलित यतिसंघ को धरसेनाचार्य का पत्र मिला तब उन्होंने श्रुत-रक्षा संबंन्धी उनके अभिप्राय को समझकर अपने संघ में से साधु चुने जो विद्याग्रहण करने और स्मरण रखने में समर्थ थे, जो अत्यन्त विनयशील थे, शीलवान् थे, जिनका देश, कुल और जाति शुद्ध था और जो समस्त कलाओं में पारंगत थे । उन दोनों को धरसेनाचार्य के पास गिरिनगर ( गिरनार ) भेज दिया । धरसेनाचार्य ने उनकी परीक्षा की । एक को अधिकाक्षरी और दूसरे को हीनाक्षरी विद्या बताकर उनसे उन्हें षष्ठोपवास से सिद्ध करने को कहा। जब विद्याएं सिद्ध हुई तो एक बड़े बड़े दांतों वाली और दूसरी कानी देवी के रूप में प्रकट हुई। इन्हें देख कर चतुर साधकों ने जान लिया कि उनके मंत्रों में कुछ त्रुटि है । उन्होंने विचारपूर्वक उनके अधिक और हीन अक्षरों की कमी वेशी करके पुनः साधना की, जिससे देवियां अपने स्वाभाविक सौम्य रूप में प्रकट हुई। उनकी इस कुशलता से गुरु ने जान लिया कि ये सिद्धान्त सिखाने के योग्य पात्र हैं । फिर उन्हें क्रम
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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