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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२९ उन्होंने अंगों और पूर्वो का एकदेश प्रकाश फैलाया और पश्चात् समाधिमरण किया । उनके पश्चात् ही सौराष्ट्र देश के गिरिनगर के समीप ऊर्जयन्त पर्वत की चन्द्रगुफा के निवासी धरसेनाचार्य का वर्णन आया है।
___ इन चार आरातीय यतियों और अर्हद्वलि, माघनन्दि व धरसेन आचार्यों के बीच इन्दनन्दि ने कोई गुरु-शिष्य-परम्परा का उल्लेख नहीं किया केवल अर्हद्वलि आदि तीन आचार्यो में एक के पश्चात् दूसरे के होने का स्पष्ट संकेत किया है । पर इन तीनों के गुरुशिष्य तारतम्य के सबन्ध में भी उन्होंने कुछ नहीं कहा । यही नहीं प्रत्युत उन्होंने स्पष्ट कहा दिया है कि -
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५१॥
अर्थात् गुणधर और धरसेन की पूर्वापर गुरुपरम्परा हमें ज्ञात नहीं है, क्योंकि, उसका वृत्तान्त न तो हमें किसी आगम में मिला और न किसी मुनिने ही बतलाया ।
किंतु नन्दि संघ की प्राकृत पट्टावली में अर्हद्वलि, माघनन्दि और धरसेन तथा उनके पश्चात् पुष्पदन्त और भूतवलिको एक दूसरे के उत्तराधिकारी बतलाया है जिससे ज्ञात होता है कि धरसेन के दादागुरु और गुरु माघनन्दि थे।
नन्दिसंघ की संस्कृत गुर्वावली में भी माघनन्दिका नाम आया है । इस पट्टावली के प्रारंभ में भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्तकी वंदना की गई है, किन्तु उनके नाम के साथ संघ आदि का उल्लेख नहीं किया गया है। उनकी वन्दना के पश्चात् मूलसंघ में नन्दिसंघ बलात्कारगण के उत्पन्न होने के साथ ही माघनन्दिका उल्लेख किया गया है । संभव है कि संघभेद के विधाता अर्हक्षलि आचार्य ने उन्हें ही नन्दिसंघ का अग्रणी बनाया हो । उनके नाम के साथ 'नन्दि' पर होने से उनका इस गण के साथ संबन्ध प्रकट होता है । यथा -
श्रीमानशेषनरनायकवन्दितांघ्रिः श्रीगुप्तिगुप्त इति विश्रुतनामधेयः । यो भद्रबाहुमुनिपुंगवपट्टपद्यः सूर्यः स वो दिशतु निर्मलसंघवृद्धिम् ॥१॥ श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसंघः तस्मिन्बलात्कारगणोऽतिरम्यः । तत्राभवत्पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्धः ॥२॥
जै.सि.भा.१,४,पृ.५१. पट्टावली में इनके पट्टधारी जिनचन्द्र और उसके पश्चात् पद्यनन्दि कुन्दकुन्द का