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________________ ४८५ अपर षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रम को प्राप्त कराई जाने वाली स्थिति का नाम विपरिणमिना स्थिति है । अपकर्षित, उत्कर्षित अथवा अन्य प्रकृति को प्राप्त कराया गया अनुभाग विपरिणामित अनुभाग कहलाता है । जो प्रदेशपिण्ड निर्जरा को प्राप्त हुआ है अथवा अन्य प्रकृति को प्राप्त कराया गया है वह प्रदेशविपरिणामना कही जाती है। इनमें स्थितिविपरिणामना की प्ररूपणा स्थितिसंक्रम, अनुभागाविपरिणामना की प्ररूपणा अनुभागसंक्रम, और प्रदेशविपरिणामना की प्ररूपणा प्रदेशसंक्रम के समान करने योग्य बतलायी गयीहै। १०. उदयानुयोगद्वार - यहाँ नोआगमकर्मद्रव्य उदय को प्रकृत बतलाकर उसके प्रकृतिउदय आदि के भेद से चार भेद बतलाये हैं । उत्तर प्रकृति उदय की प्ररूपणा में स्वामित्व का कथन करते हुए किन प्रकृतियों के कौन-कौन से जीव वेदक हैं, इसका विवेचन किया गया है। अन्य काल आदि अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा स्वामित्व से सिद्ध करके करना चाहिये, ऐसा उल्लेख करते हुए यहाँ अल्पबहुत्व के विवेचन में जो प्रकृति उदीरणाअल्पबहुत्व से कुछ विशेषता है उसका उपदेश भेद के अनुसार निर्देशमात्र किया गया है। - स्थितिउदय - स्थितिउदय की प्ररूपणा में पहिले स्थिति उदय प्रमाणानुगम, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्व इन अधिकारों के अनुसार मूलप्रकृतिस्थिति उदय की प्ररूपणा की गयी है। यह उदय की प्ररूपणा प्राय: उदीरणाप्ररूपणा के ही समान निर्दिष्ट की गयी है। उत्तरप्रकृतिस्थितिउदय - यहाँ एवं उत्कृष्ट स्थिति उदय की प्रमाणानुगम की प्ररूपणा उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के प्रमाणानुगम के समान बतलाये हुए उसे उदयस्थिति से अधिक बतलाया गया है । जघन्य स्थिति उदय की प्ररूपणा में नामनिर्देशपूर्वक कुछ कर्मों का जघन्य प्रमाणानुगम बतलाकर शेष कर्मों के प्रमाणुगम, सभी कर्मों के स्वामित्व , एक जीव की अपेक्षा काल, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्व इन अधिकारों की भी प्ररूपणा स्थिति उदीरणा के समान निर्दिष्ट की गयी है। • अनुभाग उदय - यहाँ मूलप्रकृति अनुभागउदय और उत्तरप्रकृतिअनुभाग उदय की प्ररूपणा चौबीस अनुयोगद्वारों के द्वारा करणीय बतलाकर जघन्य स्वामित्व के विषय में कुछ थोड़ी सी विशेषता का भी उल्लेख किया गया है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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