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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४८४ उल्लेखमात्र किया गया है । यहाँ भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि उपशामनाओं की भी सम्भावना है।
स्थितिउपशामना - यहाँ पहिले मूल प्रकृतियों के आश्रय से क्रमश: उत्कृष्ट और जघन्य अद्धाछेद की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् स्वामित्व आदि शेष अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा स्थितिउदीरणा के समान करना चाहिये, ऐसा संकेत कियागया है । . अनुभागउपशामना - यहाँ मूलप्रकृतिअनुभागउपशामना को सुगम बतलाकर उत्तरप्रकृति अनुभाग उपशामना में उत्कृष्ट व जघन्य प्रमायानुगम, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्ष; इन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा यथासम्भव अनुभागसत्कर्म के समान करना चाहिये ऐसा निर्देश किया गया है । यहाँ तीव्रता और मन्दता के अल्पबहत्व की प्ररूपणा को जैसे अनुभागबन्ध में छयासठ पदों द्वारा तद्विषयक अल्पबहुत्व की गयी है वैसे करने योग्य बतलाया है ।
प्रदेशउदीरणा - यहाँ 'प्रदेशउदीरणा की प्ररूपणा जानकर करना चाहिये' इतना मात्र संकेत किया गया है।
विपरिणामोपक्रम - प्रकृतिविपरिणमना आदि के भेद से विपरिणामोपक्रम चार प्रकार का है । इनमें प्रकृतिविपरिणमना के दो भेद हैं - मूलप्रकृतिविपरिणमना और उत्तरप्रकृतिविपरिणमना । मूलप्रकृतिविपरिणमना के भी दोभेद हैं - देशविपरिणमना और सर्वविपरिणमना।
देशविपरिणमना - जिन प्रकृतियों का अधःस्थितिगलना के द्वारा एकदेश निजीर्ण होता है उसका नाम देशविपरिणमना है।
सर्वविपरिणमना - जो प्रकृति सर्वनिर्जरा के द्वारा निजीर्ण होती है वह सर्वविपरिणमना कहलाती है।
. उत्तरप्रकृति तिपरिणमना - देशनिर्जरा या सर्वनिर्जरा के द्वारा निर्जीर्ण प्रकृति तथा जो अन्य प्रकृति में देशसंक्रमण अथवा सर्वसंक्रमण के द्वारा संक्रान्त होती है इसका नाम उत्तरप्रकृतिविपरिणमना है।
इस स्वरूप कथन के अनुसार, यहाँ मूल और उत्तर प्रकृतिविपरिणमना की प्ररूपणा स्वामित्व आदि अधिकारों के द्वारा करना चाहिये, ऐसा उल्लेख भर किया गया है । इसका कारण तद्विषयक उपदेश का अभाव ही प्रतीत होता है । यहाँ भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि की सम्भावना नहीं है।