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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका में पाया जाता है । इस करण की प्ररूपणा प्रारम्भ करते हुए वहाँ सर्वप्रथम यह गाथा प्राप्त होती है -
करणकयाऽकरणा वि य दुविहा उवसामणात्थ बिइयाए। अकरण-अणुइनाए अणुओगधरे पणिवयामि ॥१॥
इसमें उपशामना के करणकृता और अकरणकृता ये वे ही दो भेद बतलाये गये हैं। इनमें द्वितीय अकरणकृता उपशामना के वे ही दो नाम यहाँ भी निर्दिष्ट किये गये हैं - अकरणकृता और अनुदीर्णा । यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य 'अणुओगधरे पणिवयामि' वाक्यांश है। इसकी संस्कृत टीका में श्रीमलयगिरि सूरि ने लिखा है -
___ इस अकरणकृ तो पशामना के दो नाम हैं - अकरणोपशामना और अनुदीरणोपशामना । उसका अनुयोग इस समय नष्ट हो चुका है । इसीलिये आचार्य (शिवशर्मसूरि) स्वयं उसके अनुयोग को न जानते हुए उसके जानकार विशिष्ट प्रतिभा से सम्पन्न चतुर्दशपूर्ववेदियों को नमस्कार करते हुए कहते हैं - 'बिइयाए' इत्यादि ।
यहाँ द्वितीय गाथा में सर्वोपशामना और देशोपशामना के भी वे ही दो दो नाम निर्दिष्ट किये गये हैं जो कि यहाँ प्रकृत धवला में बतलाये गये हैं। यथा-सर्वकरणोपशामना के गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना तथा देशकरणोपशामना के उनसे विपरीत अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना ।
यहाँ अप्रशस्तोपशामना को अधिकारप्राप्त बतलाये हुए श्री वीरसेनाचार्य ने उसके अर्थपद का कथन करते हुए बतलाया है कि जो प्रदेशपिण्ड अप्रशस्तोपशामना के द्वारा उपशान्त किया गया है उसका न तो अपकर्षण किया जा सकता है, न उत्कर्षण किया जा सकता है, न अन्य प्रकृति में संक्रम कराया जा सकता है और न उदयावली में प्रवेश भी कराया जा सकता है । इस अर्थपद के अनुसार यहाँ पहिले स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर तथा अल्पबहुत्व, (भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि प्ररूपणाओं की यहाँ सम्भावना नहीं है ) इन अधिकारों के द्वारा मूलप्रकृति उपशामना की प्ररूपणा अतिसंक्षेप में की गयी है। उत्तरप्रकृतिउपशामना की प्ररूपणा भी इन्हीं अधिकारों के द्वारा संक्षेप में की गयी है।
प्रकृतिस्थानोपशामना की प्ररूपणा में ज्ञानावरणादि कर्मों के सम्भव स्थानों का उल्लेख मात्र करके उनकी प्ररूपणा स्वामित्व आदि अधिकारों के द्वारा करना चाहिये, ऐसा