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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४८० तत्पश्चात् यहाँ इन्हीं उदीरणाओं से सम्बन्धित एक जीव की अपेक्षा काल व अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल व अन्तर; तथा अल्पबहुत्व की प्ररूपंणा की गयी है । पश्चात् पदनिक्षेप की प्ररूपणा करते हुए उसमें उत्कृष्ट एवं जघन्य भेदों की अपेक्षा स्वामित्व और अल्पबहत्व की प्ररूपणा की गयी है। वृद्धिउदीरणा में समुत्कीर्तनाका कथन करके तत्पश्चात् यह संकेत किया है कि अल्पबहुत्व पर्यन्त स्वामित्व आदि अधिकारों की प्ररूपणा जिस प्रकार अनुभागवृद्धिबन्ध में की गयी है उसी प्रकार से उनकी प्ररूपणा यहाँ भी करना चाहिये।
प्रदेशउदीरणा - मूलप्रकृतिप्रदेशउदीरणा और उत्तरप्रकृतिप्रदेशउदीरणा के भेद से प्रदेश उदीरणा दो प्रकार की है। इनमें मूलप्रकृतिप्रदेश उदीरणा की विशेष प्ररूपणा यहाँ न कर केवल इतना संकेत किया गया है कि मूलप्रकृतिप्रदेशउदीरणा की समुत्वकीर्तना आदि चौबीस अनुयोगद्वारों के द्वारा अन्वेषण करके भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि की प्ररूपणा कर चुकने पर मूलप्रकृतिप्रदेशउदीरणा समाप्त होती है । ऐसा ही निर्देश कषायप्राभृत में चूर्णिसूत्र के कर्ता द्वारा भी किया गया है (देखिये क पा.सूत्र पृ.५१९)
उत्तर प्रकृति प्रदेश उदीरणा की प्ररूपणामें स्वामित्व का विवेचन करते हए पहिले मतिज्ञानावरण आदि प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणा के स्वामियों का और तत्पश्चात् उन्हीं की जघन्य प्रदेशउदीरणा के स्वामियों का कथन किया गया है । इसके बाद एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल और नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर इन अनुयोगद्वारों का कथन स्वामित्व से सिद्ध करके करना चाहिये; इतना उल्लेख मात्र करके स्वस्थान और परस्थान संनिकर्ष की संक्षेप में प्ररूपणा की गयी है।
प्रदेशभुजाकार उदीरणा की प्ररूपणा में पहिले प्रदेशभुजाकारउदीरणा, प्रदेशअल्पतर उदीरणा, प्रदेशअवस्थितउदीरणा और प्रदेशअवक्तव्य उदीरणा इन चारों के स्वरूप का निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल तथा नाना जीवों की अपेक्षा काल तथा नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर इनकी प्ररूपणा अनुभागभुजाकार उदीरणा के समान करने का उल्लेख करके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है।
पदनिक्षेपप्ररूपणा में पहले उत्कृष्ट स्वामित्व का विवेचन करके तत्पश्चात् जघन्य स्वामित्व का भी विवेचन करते हुए उत्कृष्ट और जघन्य अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी