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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४७९ परिणामप्रत्ययिक है । नौ नोकषायों की पूर्वानुपूर्वी से असंख्यातवें भाग प्रमाण परिणामप्रत्ययिक तथा पश्चादानुपूर्वी से असंख्यात बहुभाग प्रमाण भवप्रत्ययिक है । साता व असाता वेदनीय, चार आयु कर्म, चार गति और पाँच जातिकी उदीरणा भवप्रत्ययिक है। औदारिकशरीर की उदीरणा तिर्यश्च और मनुष्यों के भवप्रत्ययिक है । वैक्रियिकशरीर की उदीरणा देवनारकियों के भवप्रत्ययिक तथा तिर्यंच-मनुष्यों के परिणामप्रत्ययिक है । इसी क्रम से आगे भी यह प्ररूपणा की गयी है । विपाकप्ररूपणा में बतलाया है कि जैसे पहले निबन्धन प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार यहाँ विपाक की भी प्ररूपणा करना चाहिये । स्थानप्ररूपणा में मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियों की उदीरणा के उत्कृष्ट आदि भेदों में एक स्थानिक और द्विस्थानिक आदि अनुभागस्थानों की सम्भावना बतलायी गयी है । शुभाशुभप्ररूपणा में पुण्य-पापरूप प्रकृतियों का नामोल्लेख मात्र किया गया है । इसके पश्चात् मतिज्ञानवरणादि प्रकृतियों के उत्कष्ट-अनुत्कृष्ट आदि उदीरणा भेदों के स्वामियों की प्ररूपणा यथाक्रम से की गयी है । आगे इसी क्रम से पूर्वोक्त उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य एवं अजघन्य उदीरणा भेदों की एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल व अन्तर तथा स्वस्थान व परस्थान संनिकर्षकी भी प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वारों में इतने अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करके शेष अनुयोगद्वारों के सम्बन्ध में यह कह दिया है कि उनकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये । अन्त में अल्पबहुत्व (२३वें) अनुयोगद्वार की प्ररूपणा विस्तार से की गयी है। भुजाकार अनुभागउदीरणा - यहाँ अर्थपद की प्ररूपणा करते हुए यह बतलाया है कि अनन्तर अतिक्रान्त समय में अल्पतर स्पर्धकों की उदीरणा करके यदि इस समय में बहुत स्पर्धकों की उदीरणा करता है तो वह भुजाकार अनुभाग उदीरणा कही जायेगी । यदि अनन्तर अतिक्रमान्त समय में बहुतर स्पर्धकों की उदीरणा करके इस समय स्तोक स्पर्धकों की उदीरणा करता है तो उसे अल्पतर उदीरणा कहना चाहिये । अनन्तर अतिक्रान्त समय में जितने स्पर्धकों की उदीरणा की गयी है आगे भी यदि उतने उतने ही स्पर्धकों की उदीरणा करता है तो इसका नाम अवस्थित उदीरणा होगा । पूर्व में अनुदीरक होकर आगे उदीरणा करने पर यह अवक्तव्य उदीरणा कही जायेगी। इस प्रकार से अर्थपद का कथन करते हुए यहाँ यह संकेत किया है कि पूर्वोक्त भुजाकारादि उदीरणाओं के स्वामित्व की प्ररूपणा इसी अर्थपद के अनुसार करना चाहिये ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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