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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४७५ अवस्थित और अवक्तव्य इन चारों ही उदीरणाओं के अस्तित्व की सम्भावना बतलाकर तत्पश्चात् उनके स्वामी, एक जीव की अपेक्षा काल व अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भंगविचय, नानाजीवों की अपेक्षा काल व अन्तर का तथा अल्पबहुत्व का संक्षेप में विवेचन किया गया है। आगे चलकर इसी क्रम से मोहनीय के सम्बन्ध में भी भुजाकार उदीरणा की प्ररूपणा करके उसे यही समाप्त कर दिया है। नामकर्म आदि अन्य कर्मों के सम्बन्ध में उक्त प्ररूपणा नहीं की गयी है । इसके पश्चात् अति संक्षेप में पदनिक्षेप और वृद्धिप्ररूपणा करके प्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा समाप्त की गयी है । स्थितिउदीरणा - यह भी मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणा और उत्तरप्रकृतिस्थित उदीरणा के भेद से दो प्रकार की है। मूलप्रकृतिउदीरणा में मूल प्रकृतियों के आश्रय से स्थिति उदीरणा का जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण बतलाया गया है। जैसे- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियों से कम तीस कोड़-कोड़ि सागरोपम प्रमाण है । यहाँ उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा में दो आवली कम बतलाने IT कारण यह है कि बन्धावली और उदयावलीगत स्थिति उदीरणा के अयोग्य होती है । जघन्य स्थितिउदीरणा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की एक स्थिति मात्र है जो कि ऐसे क्षीणकषाय जीव के पायी जाती है जिसे अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय होने में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष हैं। मोहनीच की जघन्य स्थिति उदीरणा भी एक स्थितिमात्र है जो कि ऐसे सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक के पायी जाती है जिसके अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होने में एक समय अधिक आवली मात्र स्थिति शेष रही है । वेदनीय की जघन्य स्थितिउदीरणा पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन तीन बटे सात (5) सागरोपमप्रमाण है | जिस प्रकार मूलप्रकृतिस्थिति उदीरणा में मूलप्रकृतियों के आश्रय से यह प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार से उत्तर प्रकृति स्थिति उदीरणा में उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से उक्त प्ररूपणा की गयी है । स्वामित्व - पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति के उदीरक कौन और किस अवस्था में होते हैं, इसका विचार स्वामित्वप्ररूपणा में किया गया है । एक जीव की अपेक्षा काल- उक्त पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणा जघन्य से कितने काल और उत्कर्ष
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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