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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४७३ का निर्दिष्ट किया गया है । स्वस्थान संनिकर्ष के विवेचन में ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में किसी एक कर्म की उत्तर प्रकृतियों से विवक्षित प्रकृति की उदीरणा करने वाला जीव उसकी ही अन्य शेष प्रकृतियों का उदीरक होता है या अनुदीरक इसका विचार किया गया है। जैसे - मतिज्ञानावरण की उदीरणा करने वाला शेष चार ज्ञानावरण प्रकृतियों का भी नियम से उदीरक होता है । चक्षुदर्शनावरण की उदीरणा करने वाला शेष चार ज्ञानावरण प्रकृतियों का भी नियम से उदीरक होता है । चक्षुदर्शनावरण की उदीरणा करने वाला अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन तीन दर्शनावरण प्रकृतियों का नियम से उदीरक तथा शेष पाँच दर्शनावरण प्रकृतियों का वह कदाचित् उदीरक होता है। परस्थानसंनिकर्ष में आठों कर्मों की समस्त उत्तर प्रकृतियों में से किसी एक की विवक्षा कर शेष सभी प्रकृतियों की उदीरणा अनुदीरणा का विचार किया जाना चाहिये था । परन्तु सम्भवत: उपदेश के अभाव में वह यहाँ नहीं किया जा सका, उसके सम्बन्ध में यहाँ केवल इतनी मात्र सूचना की गयी है कि 'परत्थाणासणिणयासो जाणियूण वत्तव्वो' अर्थात् परस्थान संनिकर्ष का कथन जानकर करना चाहिये । ___ अल्पबहत्व - यह अल्पबहत्व भी स्वस्थान और परस्थान के भेद से दो प्रकार का है । इनमें से स्वस्थान अल्पबहुत्व में ज्ञानावरणादि एक-एक कर्म की पृथक्-पृथक् उत्तर प्रकृतियों के उदीरकों की हीनाधिता का विचार किया गया है । परस्थान अल्पबहुत्व की प्ररूपणा में समस्त कर्मप्रकृतियों के उदीरकों की हीनाधिकता का विचार सामान्य स्वरूप से किया जाना चाहिये था । परन्तु उसका भी विवेचन यहाँ सम्भवत: उपदेश के अभाव से ही नहीं किया जा सका है। इतना ही नहीं, बल्कि स्वस्थान अल्पबहत्व की प्ररूपणा में भी केवल ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय इन तीन ही कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से उपर्युक्त अपबहुत्व की प्ररूपणा की जा सकी है, शेष मोहनीय आदि कर्मों के आश्रय से वह भी नहीं की गयी है। यहाँ उसके सम्बन्ध में इतनी मात्र सूचना की गयी है 'उपरि उपदेसं लहिय वत्तव्वं । परत्थाणाप्पाबहुगं जाणिय वत्तव्वं' अर्थात् आगे मोहनीय आदि शेष कर्मों के सम्बन्ध में प्रकृत स्वस्थान अल्पबहुत्व की प्ररूपणा उपदेश पाकर करना चाहिये । परस्थान अल्पबहुत्व का कथन जानकर करना चाहिये। यहाँ एक-एक प्रकृति की विवक्षा होने से भुजाकर, पदनिक्षेप और वृद्धि प्ररूपणाओं की असम्भावना प्रगट की गयी है। प्रकतिस्थानउदीरणा - यहाँ ज्ञानावरण आदि एक-एक कर्म की अलग-अलग उत्तर प्रकृतियों का आश्रय करके जितने उदीरणास्थान सम्भव हों उनकी आधार से स्वामित्व,
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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