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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४६७ उत्पन्न माना जावेगा तो ऐसी अवस्था में अनवस्थाजनित अव्यवस्था दुर्निवार होगी । इसलिये उसे अकर्म से ही उत्पन्न मानना पडेगा । दूसरे, कार्य सर्वथा कारण के ही अनुरूप होना चाहिये, ऐसा एकान्त नियम नहीं बन सकता; अन्यथा मृत्तिकापिण्ड से घट-घटी आदि उत्पन्न न होकर मृत्तिकापिण्ड के ही उत्पन्न होने का प्रसंग अनिवार्य होगा । परन्तु चूंकि ऐसा होता नहीं है, अतएव कार्य कथंचित् (द्रव्य की अपेक्षा) कारण के अनुरूप और कथंचित् (पर्याय की अपेक्षा) उससे भिन्न ही उत्पन्न होता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये। प्रसंग पाकर यहाँ सांख्याभिमत सत्कार्यवाद का उल्लेख करके उसका निराकरण करते हुए 'नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि' इत्यादि आप्तमीमांसा की अनेक कारिकाओं को उद्धृत करके तदनुसार नित्यत्वैकान्त और सर्वथा असत्कार्यवाद का भी खण्डन किया गया है । इसके अतिरिक्त परस्पर निरपेक्ष अवस्था में उभय (सत्-असत्) रूपता भी उत्पद्यमान कार्य में नहीं बनती, इसका उल्लेख करते हुए स्याद्वादसम्मत सप्तभंगी की भी योजना की गयी है। इसी सिलसिले में बौद्धाभिमत क्षणक्षयित्व का उल्लेख कर उसका निराकरण करते हुए द्रव्य की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूपता को सिद्ध किया गया है। पूर्वोक्त कारिकाओं के अभिप्रायानुसार पदार्थों को सर्वथा सत् स्वीकार करने वाले सांख्यों के यहाँ प्रागभावादि के असम्भव हो जाने से जिस प्रकार अनादिता, अनन्तता, सर्वात्मकता और नि:स्वरूपता का प्रसंग दुर्निवार है उसी सर्वथा अभाव (शून्यैकान्त) को स्वीकार करने वाले माध्यमिकों के यहाँ अनुमानादि प्रमाण के असम्भव होने से स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष को दूषित न कर सकने का भी प्रसंग अनिवार्य होगा । परस्पर निरपेक्ष उभयस्वरूपता (सदसदात्मकता) को स्वीकार करने वाले भाट्टों के समान सांख्यों के यहाँ भी परस्परपरिहारस्थितिलक्षण विरोध की सम्भावना है ही। कारण कि वह (उभयस्वरूपता) स्यादाद सिद्धान्त को स्वीकार किये बिना बन नहीं सकती। पूर्वोक्त दोषों के परिहार की इच्छा से बौद्ध जो सर्वथा अनिर्वचनीयता को स्वीकार करते हैं वे भी भला 'तत्व अनिर्वचनीय है' इस प्रकार के वचन के बिना अपनी अभीष्ट तत्वव्यवस्था का बोध दूसरों को किस प्रकार से करा सकेंगें ? इस प्रकार सर्वथा सदसदादि एकान्त पक्षों की समीक्षा करते हुए यहाँ इन सात भंगों की योजना की गयी है । यथा - ... १. स्वद्रव्य; क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा वस्तु कथंचित् सत् ही है । २ वही परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा कथंचित् असत् ही है । ३ क्रम से स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि की विवक्षा होने पर वह कथंचित् सदसत् (उभय स्वरूप ) ही है । ४ युगपत् स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि दोनों की विवक्षा में वस्तु कथंचित् अवाच्य ही है । इन चार
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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