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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४६८ * मुख्य भंगों का निर्देश तो 'कथंचित्ते सदेवेष्टं' इत्यादि कारिका में ही कर दिया गया है । शेष तीन भंग 'च' शब्द से सूचित कर दिये गये हैं । वे इस प्रकार हैं- ५. कथंचित् वस्तु सत् और अवक्तव्य ही है । ६. कथंचित् वह असत् और अवक्तव्य ही हैं । ७ कथंचित् वह सत्असत् और अवक्तव्य ही है। इन तीन भंगों में यथाक्रम से स्वद्रव्यादि तथा युगपत् स्वपरद्रव्यादि, परद्रव्यादि तथा युगपत् स्व-परद्रव्यादि और क्रम से स्व-परद्रव्यादि तथा युगपत् स्व-परद्रव्यादिकी विवक्षा की गयी है । यहाँ जो आप्तमीमांसा की 'कथंचित् ते सदेवेष्टं' आदि कारिका उद्घृत की गयी है ठीक उसी प्रकार की प्राकृत गाथा पंचास्तिकाय में पायी जाती है । यथा - सिय अत्थि णत्थि उभयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ॥ प्रकृतिप्रक्रम, स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रम के भेद से प्रक्रम तीन प्रकार का बतलाया गया है। इनमें प्रकृतिप्रक्रम को मूलप्रकृतिप्रक्रम और उत्तरप्रकृतिप्रक्रम इन दो भेदों में विभक्त कर यथाक्रम से उनके अल्पबहुत्व की यहाँ प्ररूपणा की गयी है । अन्त में स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रम की भी संक्षेप में प्ररूपणा करके इस अनुयोगद्वार को समाप्त किया गया है । ९. उपक्रम - प्रक्रम के समान ही उपक्रम के भी ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं - नामप्रक्रम, स्थापनाप्रक्रम, द्रव्यप्रक्रम, क्षेत्रप्रक्रम, कालप्रक्रम और भावप्रक्रम । यहाँ कर्मप्रक्रम को अधिकार प्राप्त बतलाकर उसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- बन्धनोप्रक्रम, उदीरणोप्रक्रम, उपशामनोपकर्म और विपरिणामोप्रक्रम । यहाँ प्रक्रम और उपक्रम में विशेषता का उल्लेख करते हुए यह बतलाया है कि प्रक्रम प्रकृति, स्थिति और अनुभाग में आने वाले प्रदेशाग्र की प्ररूपणा करता है कि उपक्रम बन्ध होने के द्वितीय समय से लेकर सत्तव स्वरूप से स्थित कर्मपुद्गलों के व्यापार की प्ररूपणा करता है । बन्धनोप्रक्रम के भी यहाँ प्रकृति व स्थिति आदि के भेद से चार भेद बतलाकर उनकी प्ररूपणा सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत के समान करना चाहिये, ऐसा उल्लेखमात्र किया है । यहाँ यह आशंका उठायी गयी है कि इनकी प्ररूपणा जैसे महाबन्ध में की गयी है तदनुसार वह यहाँ क्यों न की जाय ? इनके समाधान में बतलाया है कि महाबन्ध में चूंकि प्रथम समय सम्बन्धी बन्ध का आश्रय लेकर वह प्ररूपणा की गयी है अतएव तदनुसार यहाँ उनकी प्ररूपणा करना इष्ट नहीं है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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