SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४६६ ७. निबन्धन - ‘निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम्' इस निरुक्ति के अनुसार जो द्रव्य जिसमें निबद्ध है उसे निबन्धन कहा जाता है । निक्षेपयोजना में इसके ये ६ भेद किये गये हैं- नामनिबन्धन, स्थापनानिबन्धन, द्रव्यनिबन्धन, क्षेत्रनिबन्धन, कालनिबन्धन और भावनिबन्धन । इन सबके स्वरूप का विवरण करते हुए यहाँ नाम और स्थापना निबन्धनों को छोडकर शेष ४ निबन्धनों को प्रकृत बतलाया है। साथ में यहाँ यह भी निर्देश किया गया है कि यद्यपि इस निबन्धन अनुयोगद्वार में छहों द्रव्योंके निबन्धन की प्ररूपणा की जाती है ' फिर भी अध्यात्मविद्या का अधिकार होने से यहाँ उन सबको छोड़कर केवल कर्म निबन्धन ही प्ररूपणा की गयी है । सर्वप्रथम यहाँ निबन्धन अनुयोगद्वार की आवश्यकता प्रगट करते हुए यह बतलाया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के द्वारा कर्मों और उनके मिथ्यात्वप्रभृति प्रत्ययों की प्ररूपणा की जा चुकी है। साथ ही कर्मरूप होने की योग्यता रखनेवाले पुद्गलों का भी विवेचन किया जा चुका है । किन्तु उन कर्मों की प्रकृति कहाँ किस प्रकार होती है, यह नहीं बतलाया गया है । इसीलिये कर्मों के इस व्यापार की प्ररूपणा के लिये प्रकृत निबन्धन अनुयोगद्वार का अवतार हुआ है । नोआगमकर्मनिबन्धन के दो भेद हैं- मूलकर्मनिबन्धन और उत्तरकर्मनिबन्धन । इनमें से मूल कर्मनिबन्धन में ज्ञानावरणादि ८ मूल प्रकृतियों के तथा उत्तरकर्मप्रकृतिनिबन्धन इन्हीं के उत्तर भेदों के निबन्धन की प्ररूपणा की गयी है । ८. प्रक्रम - यहाँ निक्षेपयोजना करते हुये प्रक्रम के ये ६ भेद निर्दिष्ट किये गये हैंनामप्रक्रम, स्थापनाप्रक्रम, द्रव्यप्रक्रम, क्षेत्रप्रक्रम, कालप्रक्रम और भावप्रक्रम । इनके कुछ और उत्तर भेदों का उल्लेख करते हुए यहाँ कर्मप्रक्रम को अधिकार प्राप्त बतलाया है तथा 'प्रक्रामतीति प्रक्रम:' इस निरुक्ति के अनुसार प्रक्रम से कार्मणा पुद्गलप्रचय का अभिप्राय बतलाया है । यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि जिस प्रकार कुंभार एक मिट्टी के पिण्ड से अनेक घटादिकों कोउत्पन्न करता है उसी प्रकार यह संसारी प्राणी एकप्रकार से कर्म को बांधकर फिर उससे आठ प्रकार के कर्मों को उत्पन्न करता है, क्योंकि अन्यथा अकर्म पर्याय से कर्मपर्याय का उत्पन्न होना सम्भव नहीं है । इसके उत्तर में कहा गया है कि जब अकर्म से कर्म की उत्पत्ति सम्भव नहीं है तब जिस एक कर्म से आठ प्रकार के कर्मों की उत्पत्ति स्वीकार की जाती है वह एक कर्म भी कैसे उत्पन्न हो सकेगा ? यदि उसे भी कर्म से ही १ इसकी प्ररूपणा संतकम्मपंजिया में देखिये ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy