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________________ ४५७ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका उत्पन्न होते हैं वे सब यहाँ पर एक साथ उत्पन्न हुए माने जाते हैं, क्योंकि उन सबका एक शरीर के साथ सम्बन्ध पाया जाता है । यह तो उसके आहार ग्रहण की विधि है । उनके मरण और जन्म के सम्बन्ध में भी यह नियम है कि जिस शरीर में एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ नियम से अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते हैं और जिस सरीर में एक जीव मरता है वहाँ नियम से अनन्तानन्त जीवों का मरण होता है। तात्पर्य यह है कि वे एक बन्धबद्ध होकर ही जन्मते हैं और मरते हैं। वे निगोद जीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के होते हैं और ये परस्पर अपने सब अवयवों द्वारा समवेत होकर ही रहते हैं। उसमें भी बादर निगोद जीव मूली, थूवर और आद्रर्क आदि के आश्रय से रहते हैं और सूक्ष्म निगोद जीव सर्वत्र एक बन्धनबद्ध होकर पाये जाते हैं। एक निगोद जीव अकेला कहीं नहीं रहता। इन निगोद जीवों के जो आश्रय स्थान हैं उनमें असंख्यातलोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं। उनमें से एक एक निगोदशरीर में जितने बादर और सूक्ष्मनिगोद जीव प्रथम समय में उत्पन्न होते हैं उनसे दूसरे समय में उसी शरीर में असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाणकाल तक उत्तरोत्तर प्रत्येक समय में असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। पुन:एक, दोआदि समय से लेकर उत्कृष्टरूप से आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाणकाल का अन्तर देकर पुन: एक, दो आदि समयों से लेकर आवलि के असंख्यतवें भागप्रमाणकाल तक उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार सान्तर निरन्तर क्रम से जब तक सम्भव है वे निगोदजीव उत्पन्न होते हैं । ये सब उत्पन्न हुए जीव एक साथ एक क्षेत्रावगाही होकर रहते हैं। सूत्रकार कहते हैं कि ऐसे अनन्त जीव हैं जो अभी तक त्रसपर्याय को नहीं प्राप्त हुए हैं, क्योंकि इनका एकेन्द्रिय जाति में उत्पत्ति का कारणभूत संक्लेश परिणाम इतना प्रबल है जिससे वे निगोदवास छोड़ने में असमर्थ हैं । अब तक जितने सिद्ध हुए और जितना काल व्यतीत हुआ उससे भी अनन्तगुणे जीव एक निगोदशरीर में निवास करते हैं । यहाँ पर वीरसेनाचार्य संख्यात आदि की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि आय रहित जिन राशियों का केवल व्यय के द्वारा विनाश सम्भव है वे राशियाँ संख्यात और असंख्यात कही जाती हैं। तथा आय न होने पर भी जिस राशि का व्यय के द्वारा कभी अभाव नहीं होता वह राशि अनन्त कही जाती है । यद्यपि अर्धपुद्गल परिवर्तन काल भी अनन्त माना जाताहै, पर यह उपचार कथन है । और इस उपचार का कारण यह है कि यह अन्य ज्ञानों का विषय न होकर अनन्त संज्ञा वाले सिर्फ केवल ज्ञान का विषय है, इसलिए इसमें अनन्त का व्यवहार किया जाता है । निगोद राशि दो प्रकार की है - चतुर्गतितिनगोद और नित्यनिगोद । जो चारों गतियों में उत्पन्न होकर पुन: निगोद में चले जाते हैं वे चतुर्गतिनिगोद कहलाते हैं । इतरानिगोद
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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