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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४५८ शब्द इसी का वाचक है और जो अवतक निगोद से नहीं निकले हैं या सर्वदा निगोद में रहते हैं वे नित्य निगोद कहे जाते हैं । अतीत काल में कितने जीव त्रसपर्याय को प्राप्त कर चुके हैं इस प्रश्न का समाधान करते हुए वीरसेनस्वामी लिखते हैं कि अतीतकाल से असंख्यातगुणे जीव ही अभी तक त्रसपर्याय को प्राप्त हुए हैं। यह अर्थपद है । इसके अनुसार यहाँ आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । वे ये हैं सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । यहाँ इन आठों अनुयोगद्वारों का आश्रय लेकर दो शरीर वाले तीन शरीर वाले, चार शरीरवाले और शरीर सहित जीवों का ओ और आदेश से विचार किया गया है । विग्रहगति में विद्यमान चारों गति के जीव दो शरीरवाले होते हैं, क्योंकि उनके तैजस और कार्मणशरीर वाले या वैक्रियिक, तैजस और कार्मण शरीर वाले जीव तीन शरीर वाले होते हैं। औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मणा शरीर वाले या औदारिक, आहारक, तैजस और कार्मणा शरीर वाले जीव चार शरीर वाले होते हैं। तथा सिद्ध जीव शरीर रहित होते हैं । यहाँ सत् आदि अनुयोगद्वारों के आश्रय से विशेष व्याख्यान मूल से जान लेना चाहिए । विशेष बात इतनी है कि सूत्रों में केवल सत्प्ररूपणा और अल्पबहुत्व प्ररूपणा ही कही गई हैं। शेष छह का व्याख्यान वीरसेन आचार्य ने किया है। शरीरप्ररूपणा – इसका व्याख्यान छह अनुयोगद्वारों के आश्रय से किया गया है। वे छह अनुयोगद्वार ये हैं - नामनिरुक्ति, प्रदेशप्रमाणानुगम, निषेकप्ररूपणा, गुणकार, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व | नामनिरुक्ति में पाँचों शरीर की निरुक्ति की गई है। प्रदेशप्रमाणा नुगम में पाँचों शरीरों के प्रदेश अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण हैं यह बतलाया गया है | निषेकप्ररूपणा का विचार अवान्तर छह अनुयोगद्वारों का आश्रय लेकर किया गया है। उनके नाम ये हैं- समुत्कीर्तना, प्रदेशप्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, प्रदेशविरच और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना द्वारा बतलाया गया है कि जिन औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीर की वर्गणाओं का प्रथम समय में ग्रहण होता है उनमें से कुछ समय तक, कुछ दो समय तक इस प्रकार तीन आदि समय से लेकर जिसकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति होती है कुछ उतने काल तक रहती है। आशय यह है कि इन शरीरों की स्थिति में आबाधा काल नहीं होता । इसी प्रकार तैजसशरीर के विषय में भी जानना चाहिए। मात्र तैजसशरीर की उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागर लेनी चाहिए। कार्मणाशरीर के परमाणु ग्रहण करने के बाद एक आवलि तक नहीं खिरते, इसलिए इसके परमाणु कुछ एक समय अधिक एक आवलि तक और कुछ दो समय अधिक एक आवलि तक इस प्रकार
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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