SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४५५ करते हुए कौन वर्गणा कितनी होती है यह बतलाया गया है। एकश्रेणिवर्गणा में जाति की अपेक्षा कुल वर्गणाएँ तेईस मानकर उनकाविचार किया गया है और नानाश्रेणिवर्गर्णा में प्रत्येक वर्गणा संख्या की अपेक्षा कितनी हैं इस प्रकार परिणाम बतलाकर विचार किया गया है । वर्गणानिरूपणा - तेईस प्रकार कीवर्गणाओं में से कौन वर्गणा किस प्रकार उत्पन्न होती है क्या भेद से उत्पन्न होती हैं या संघात से उत्पन्न होती हैं या भेद - संघात से उत्पन्न होती हैं, इस बात का विचार इस अधिकार में किया गया है । स्कन्ध में टूटने के नाम भेद हैं । परमाणुओं के समागम का नाम संघात है और स्कन्ध का भेद होकर मिलने का नाम भेद - संघात है । उदाहरणार्थ - द्विप्रदेशी आदि उपरिक वर्गणाओंके भेद से एक प्रदेशी वर्गणा उत्पन्न होती है । द्विप्रदेशी वर्गणा त्रिप्रदेशी आदि उपरिम वर्गणाओं के भेद से एक प्रदेशी वर्गणाओं के संघात से और स्वस्थान की अपेक्षा भेद - संघात से उत्पन्न होती है । इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए। मात्र सान्तर - - निरन्तर वर्गणा से लेकर अशून्यरूप जितनी वर्गणाएँ हैं वे सब स्वस्थान की अपेक्षा भेद - संघात से ही उत्पन्न होती हैं । इतनी बात अवश्य है कि किन्हीं सूत्रपोथियों में सान्तर - निरन्तर वर्गणा की उत्पत्ति भी पूर्व की वर्गणाओं के संघात से, उपरिम वर्गणाओं के भेद से और स्वस्थान की अपेक्षा भेद- संज्ञात से बतलाई है । कारण का विचार मूल टीका में किया ही है, इसलिए वहाँ से जान लेना चाहिए । पहले वर्गणाद्रव्यसमुदाहार के चौदह भेद करके सूत्रकार ने वर्गणाप्ररूपणा और वर्गणानिरूपणा इन दो का ही विचार किया है। शेष बारह का क्यों नहीं किया है इस बात का विचार करते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि सूत्रकार चौबीस अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के ज्ञाता थे इसलिए उन अनुयोगद्वारों के अजानकार होने के कारण नहीं किया है, यह तो कहा नहीं जा सकता है। वे उनका कथन करना भूल गये इसलिए नहीं किया है यह भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि सावधान व्यक्ति से ऐसी भूल होना सम्भव नहीं है । फिर क्यों नहीं किया है इस बात का समाधान करते हुए वीरसेनस्वामी कहते हैं। कि पूर्वाचार्यो के व्याख्यान का जो क्रम रहा है उसका प्ररूपण करने के लिए ही यहाँ भूतबलि भट्टारक ने शेष बारह अनुयोगद्वारों का कथन नहीं किया है। इस प्रकार मूल सूत्रों में शेष बारह अनुयोगद्वारों का विचार तो नहीं किया गया है, फिर भी वीरसेनस्वामी ने उन अनुयोगद्वारों का आश्रय लेकर वर्गणाओं का विस्तार से विचार किया है, सो यह समस्त विषय मूल से जान लेना चाहिए ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy