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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४५४ दूध तो उस अवस्था में भी बना रहता है । इस प्रकार जो बात दूध के विषय मे है वही बात केवली जिन के शरीर के और उसकी धातुओं और उपधातुओं के विषय में भी जाननी चाहिए। इस प्रकार क्षपितकशि विधि से आए हुए क्षीणकषाय जीव के अन्तिम समय में प्राप्त शरीर में जघन्य बादरनिगोदवर्गणा होती है । तथा स्वयम्भूरमणद्वीप के कर्मभूमि संबंधी भाग में मूली के शरीर में उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणाहोती है। मध्य में नाना जीवों का आश्रय लेकर ये बादरनिगोदवर्गणाएँ अनेक विध होती हैं। तीसरीविचारणीय सूक्ष्मनिगोदवर्गणा है । बादर और सूक्ष्मनिगोदवर्गणा में अन्तर यह है कि बादरनिगोदवर्गणा दूसरे के आश्रय से रहती हैं और सूक्ष्मनिगोदवर्गणा जल में, स्थल में व आकाश में सर्वत्र बिना आश्रय के रहती हैं। क्षपित कशिविधि से और क्षपित घोलमान विधि सेआये हुए जो सूक्ष्म निगोद जीव होते हैं उनके यह सूक्ष्म निगोद वर्गणा जघन्य होती हैं । यह तो आगमप्रसिद्ध बात है कि एक निगोद जीव अकेला नहीं रहता। अनन्तानन्त निगोद जीवों का एक शरीर होता है । असंख्यातलोकप्रमाण शरीरों की एक पलवि होती है और आवालि के असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियों का एक स्कन्ध होता है। यहाँ ऐसे सूक्ष्म स्कन्ध की एक जघन्य वर्गणा ली गई है। तथा उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा एक बन्धनबद्ध छह जीव निकायों के संघात रूप महामत्स्य के शरीर में दिखलाई देती है। ये अपने जघन्य से उत्कृष्ट तक निरन्तर क्रम से पाई जाती है । बादर निगोद वर्गणाओं में जिस प्रकार बीच- बीचमें अन्तर दिखाई देता है उस प्रकार इनमें नहीं दिखलाई देता है । . चौथी विशेष वक्तव्य योग्य महास्कन्धद्रव्यवर्गणा है । यह वर्गणा आठों पृथिवियाँ, भवन और विमान आदि सब स्कन्धों के संयोग से बनती हैं। यद्यपि इन सब पृथिवी आदि में अन्तर दिखलाई देता है, परसूक्ष्म स्कन्धों द्वारा परस्पर सम्बन्ध बना हुआ है, इसलिए इन सबको मिलाकर एक महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा मानी गई है। - इस प्रकार ये कुल तेईस वर्गणाएँ हैं। इनमें से आहारवर्गणा, तैजसशरीरवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कर्मणाशरीरवर्गणा ये पाँच वर्गणाएँ जीव द्वारा ग्रहणयोग्य हैं, शेष नहीं। इन वर्गणाओं का प्रमाण कितना है, पिछली वर्गणा से अगली वर्गणा किस क्रम से चालू होती है, अपनी जघन्य से अपनी उत्कृष्ट कितनी बड़ी है आदि प्रश्नों का समाधान मूल को देखकर कर लेना चाहिए। यहां तक एकश्रेणिवर्गणाओं का विचार करके आगे नानाश्रेणिवर्गणाओं का विचार
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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