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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४४४ - आयुकर्म -- जो नारक आदि भवधारण का कारण कर्म है उसे आयु कर्म कहते हैं। भव अन्य कर्म के उदय से होताहै । किन्तु उसमें विवक्षित समय तक रखना इस कर्म का कार्य है । भव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार इस कर्म की भी तीव्रता और मन्दता जाननी चाहिए । भव मुख्य रूप से चार हैं - नारकभव, तिर्यश्चभव, मनुष्यभव और देवभव। अत: आयुकर्म के भी चार ही भेद हैं - नारकायु, तिर्यश्चायु, मनुष्यायु और देवायु । नामकर्म -- जो जीव की नारक आदि नाना अवस्थाओं और शरीर आदि नाना भेदों के होने में कारण है उसे नामकर्म कहते हैं। इसके पिण्ड प्रकृतियों की दृष्टि से मुख्य भेद व्यालीस हैं । जिस प्रकृति का जो नाम है तदनुरूप उसका कार्य है । मात्र इन प्रकृतियों का लक्षण करते समय जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के विभाग को ध्यान में रखकर लक्षण करना चाहिए । आनुपूर्वी का उदय विग्रहगति में होता है । इसके उदय से विग्रहगति में जीवप्रदेशों का आनुपूर्वीक्रम से विशिष्ट आकार प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि विग्रहगति में संस्थान नामकर्म का उदय नहीं होता, इसलिए जीवप्रदेशों को विशिष्ट आकार प्रदान करना इसका मुख्य कार्य प्रतीत होता है । आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी प्रकृति है, इसलिए अपनी-अपनी गति के विग्रह क्षेत्र के अनुसार तो इसके भेद होते ही हैं, साथ ही जितनी प्रकार की अवगाहनाओं का त्याग होकर अगली गति प्राप्त होती है वे सब अवगाहनाएँ . भी आनुपूर्वी के अवान्तर भेदों की कारण हैं। यही कारण है कि प्रत्येक आनुपूर्वी के विकल्पों का विवेचन सूत्रकार ने इन दो दृष्टियों को ध्यान में रखकर किया है। पहले तो एक अवगाहना और क्षेत्र के कारण जितने विकल्प सम्भव हैं वे लिए हैं, फिर इन विकल्पों को अवगाहना के विकल्पों से गुणित कर दिया है और इस प्रकार प्रत्येक आनुपूर्वी के सब विकल्प उत्पन्न किये गये हैं। इस प्रकार राज के वर्ग को जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतने नरकगत्यानुपूर्वी के भेद हैं। लोक को जगश्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतने तिर्यग्गत्यानुपूर्वी के विकल्प हैं । पैंतालीस लाखयोजन बाहल्यवाले राजुवर्ग को जगश्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहना विकल्पोंसे गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतने मनुष्यगत्यानुपूर्वी के भेद होते हैं। और नौ सौ योजन बाहल्यरूप राजुप्रतर को जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतने देवगत्यानुपूर्वी के अवगाहनाविकल्प होते हैं। यहां पैंतालीस लाख योजन बाहल्य रूप राजुप्रतर को जगश्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनाविकल्पों से गुणित करने पर मनुष्यगत्यानुपूर्वी के कुल भेद उत्पन्न होते हैं, एक ऐसा उपदेश भी उपलब्ध होता है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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