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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४४३ आवरण करने वाले चार दर्शनावरण और निद्रादिक पांच, कुल नौ दर्शनावरण कर्म माने गये हैं। वेदनीय - जो आत्मा को सुख और दुःख का वेदन कराने में सहायक है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इसके सातावेदनीय और असातादेदनीय ये दो भेद हैं। सात परिणाम का कारण सातावेदनीय और असात परिणाम का कारण असातावेदनीय कर्म है। यहां पर वीरसेन स्वामी ने दुक्खके प्रतिकार में कारणभूत द्रव्य का संयोग कराना और दु:ख को उत्पन्न करने वाले कर्मद्रव्य की शक्ति का विनाश करना भी सातावेदनीय कर्म का कार्य माना है। ___मोहनीय कर्म - जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है । परको स्व समझना, स्व और पर में भेद न करना, स्व को पर का कर्ता मान इष्टानिष्ट करने के लिए या उसे ग्रहण करने के लिए उद्यत होना, और गृहीत वस्तु को स्व मानकर उसका संग्रह करना आदि यह सब मोह का कार्य है । इसके दो भेद हैं - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय उदय में 'स्व' की प्रतीति नहीं होती या 'पर' में 'स्व' की बुद्धि होती है और चारित्रमोहनीय के उदय में पर का ग्रहण और उसमें विविधि प्रकार के भाव होते हैं। . दर्शनमोहनीय -- यह मूल में एक है, अर्थात् बन्ध केवल मिथ्यात्व का ही होता है। और अनादि काल से जब तक जीव मिथ्यादृष्टि रहता है तब तक एक मिथ्यात्व की ही सत्ता रहती है, फल भी इसी का भोगना पड़ता है। किन्तु प्रथम बार सम्यक्त्व के होने पर यह मिथ्यात्व कर्म तीन भागों में बंट जाता है - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति! नामानुसार कार्य भी इनके अलग-अलग हो जाते हैं । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति । नामानुसार कार्य भी इनके अलग-अलग हो जाते हैं। मिथ्यात्व के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि ही रहता है, सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है, और सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से सम्यग्दर्शन में दोष लगाता है । आगे दर्शमोहनीय की क्षपणा होने तक मिथ्यात्व की सत्ता तो नियम से बनी रहती है, परन्तु शेष दो की सत्ता मिटतीबनती रहती है । पल्य के असंख्यातवें भाग काल से अधिक समय तक यदि मिथ्यात्व में रहता है तो इनकी सत्ता नहीं रहती और इस बीच या नये सिरेसेसम्यग्दृष्टि हो जाता है तो इनकी सत्ता का क्रम या तो चालू हो जाता है या पुन: प्राप्त हो जाती है। हां दर्शनमोहनीय क्षपणा के बाद इनकी सत्ता नियम से नहीं रहती, यह निश्चित हैं। चारित्रमोहनीय -- इसके दो भेद हैं कषायवेदनीय और नोकषावेदनीय । कषायवेदनीय के १६ और नोकषायवेदनीय के ९ भेद हैं। इनके नाम और कार्य स्पष्ट हैं।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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