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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४४२ ज्ञान का पांचवां भेद केवलज्ञान है । यह सकल है, सम्पूर्ण है, और असपत्न है। खण्डरहित होने से वह सकल है। पूर्णरूप से विकास को प्राप्त होकर अवस्थित है, इसलिए सम्पूर्ण है । कर्म-शत्रुओं का अभाव हो जाने के कारण असपत्न है। इसके विषय का निर्देश करते हुए बतलाया है कि यह सब लोक, सब जीव और सब भावों को एक साथ जानता है। कारण स्पष्ट है, क्योंकि आत्मा का स्वभाव जानना और देखना है । यदि वह समर्याद जानता है तो उसका कारण प्रतिबन्धक कारण है । किन्तु जब सब प्रकार के प्रतिबन्धक कारण दूर हो जाते हैं तो फिर ज्ञान में यह मर्यादा नहीं की जा सकती कि वह इतने क्षेत्र और इतने काल के भीतर के विषय को ही जान सकता है । इसलिए केवलज्ञान का विषय तीनों कालों और तीनों लोकों के समस्त पदार्थ माने गये हैं। ये ज्ञान के पांच भेद हैं, इसलिए ज्ञानावरण कर्म के भी पांच भेद माने गये हैं।
आत्मसंवेदन का नाम दर्शन है । इसका जो आवरण करता है उसे दर्शनावरण कहते हैं । इसकी चक्षुदर्शनावरण आदि ९ प्रकृतियां हैं।
साधारणत: दर्शन के स्वरूप के विषय में विवाद है। कुछ ऐसा मानते हैं कि ज्ञान के पूर्व जो सामान्यवलोकन होता है उसे दर्शन कहते हैं। किन्तु वीरसेन स्वामी यहां 'सामान्य" पद से आत्मा को ग्रहण करके यह अर्थ करते हैं कि उपयोग की आभ्यन्तर प्रवृत्ति का नाम दर्शन और बाह्म प्रवृत्ति का नाम ज्ञान है । दर्शन में कर्ता और कर्म के भेद नहीं होता, परन्तु ज्ञान में कर्ता और कर्म का स्पष्टत: भेद परिलक्षितहोता है । तात्पर्य यह है कि किसी विषय को जानने के पहले जो आत्मोन्मुख वृत्ति होती है उसे दर्शन कहते हैं और घट आदि पदार्थो को जानना ज्ञान है । दर्शन के मुख्य भेदचार हैं - चक्षुदर्शन,अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए उसके पहले दर्शन नहीं होता; यह स्पष्ट ही है । इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान भी मतिज्ञानपूर्वक होता है इसलिए उसके पहले भी दर्शन नहीं होता, यह भी स्पष्ट है । शेष रहे तीन ज्ञान, सो इनमें मतिज्ञान पांच इन्द्रियों और मन के निमित्त से होता है। उसमें भी चाक्षुष ज्ञान को मुख्य मानकर दर्शन का एकभेद चक्षुदर्शन कहा गया है । शेष इन्द्रियों और मन की मुख्यता से दूसरे दर्शन का नाम अचक्षुदर्शन रखा है । अवधिज्ञान के पहले अवधिदर्शन होता है । यद्यपि आगम में अवधिदर्शन का सद्भाव चौथे गुणस्थान से माना गया है; इसलिए विभंगज्ञान के पहले कौन सा दर्शन होता है, यह शंका होती है जो वीरसेन स्वामी के सामने भी थी। पर वीरसेन स्वामी ने विभंगज्ञान के पहले होने वाले दर्शन को अवधिदर्शन ही माना है। केवलज्ञान के साथ जो दर्शन होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं । इस प्रकार दर्शन चार हैं, अत: इनको