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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४४१ करने पर इसमें ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश पड़ना सम्भव है । क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि श्रुतज्ञान में पहले पूर्वो सम्बन्धी ज्ञान ही विवक्षित था । बाद में उसमें आचारांग आदि सम्बन्धी अन्य ज्ञान गर्भित किया गया है । जो कुछ हो, है यह प्रश्न विचारणीय। इस प्रकार श्रुतज्ञान की प्ररूपणा करके अन्त में उसके पर्याय नाम दिये गये हैं जो कई दृष्टियों से महत्व रखते हैं।
तीसरा ज्ञान अवधिज्ञान है । इसे मर्यादाज्ञान भी कहते हैं, क्योंकि यह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि की सहायता के बिना होता है । क्षयोपशम की दृष्टि से असंख्यात प्रकार का होकर भी इसके मुख्य भेद दो हैं- भक्प्रत्यय और गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों, नारकियों तथा तीर्थकों के होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तिर्यश्चों व मनुष्यों के होता है। देवों और नारकियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान होते हुए भी वह पर्याप्त अवस्था में ही होता है, इतना विशेष समझना चाहिए। तिर्यञ्चों और मनुष्यों के गुणप्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त अवस्था में ही होता है, यह स्पष्ट है । इन दोनों अवधिज्ञानों के अनेक भेद हैं - देशावधि, परमावधि और सर्वावधि तथा हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिप्राती, अप्रतिप्राती, एकक्षेत्र
और अनेकक्षेत्र । इन सबका विशेष विचार यहां वीरसेन स्वामी ने किया है । किस अवधिज्ञान का द्रव्य, क्षेत्र और काल कितना है; इसका भी विचार मूल सूत्रों में और धवला टीका में भी किया गया है।
ज्ञान का चौथा भेद मन:पर्यय ज्ञान है । यह दूसरे के मन में अवस्थित विषय को जानता है, इसलिए इसकीमन:पर्यय ज्ञान संज्ञा है । इसके दो भेद हैं - ऋजुमति और विपुलमति । इनमें विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान के उत्कृष्ट क्षेत्र का विचार करते हुए सूत्र में कहा है कि यह ज्ञान उत्कृष्ट रूप से मानुषोत्तर शैल.के भीतर जानता है, बाहर नहीं । वीरसेन स्वामी ने इसका व्याख्यान करते हुए क्षेत्र के विषय में तो यह बतलाया है कि मानुषोत्तर शैल पैंतालीस लाख योजन प्रमाण क्षेत्र का उपलक्षण है । इसलिए इससे मानुषोत्तर शैल के बाहर का प्रदेश भी लिया जासकता है। कारण कि उत्कृष्ट विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी जहां स्थित होगा वहां से दोनों ओर के समान क्षेत्र के विषय को ही जानेगा । मान लीजिये कि कोई एक विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी मानुषोत्तर शैल से एक लाख योजन हटकर अवस्थित है। ऐसीअवस्था में वह दोनों ओर साढ़े बाई लाख योजन तक के विषय को जानेगा, अत: स्वाभावत: उसका विषयक्षेत्र मानुषोत्तर शैल के बाहर हो जायेगा । यह नहीं हो सकता कि एक ओर वह एक लाख योजन क्षेत्र का विषय जाने और दूसरी ओर ४४ लाख योजन का (देखिये पृ. ३४४ का विशेषार्थ ) ।