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________________ ४४० षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका यही क्रम उपलब्ध होता है, क्योंकि सब पूर्वो में अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व औरपूर्वसमास ज्ञान विवक्षित हैं। किस क्रम से ज्ञान होता है, इसकी यहां मुख्यता नहीं है; यह अभ्यास की बात है । हो सकता है कि पर्याय और पर्यायसमास ज्ञान के बाद किसी को उत्पादपूर्व के एक अक्षर का ज्ञान सर्वप्रथम हो, किसी को लोकबिन्दुसार के एक अक्षर का ज्ञान सर्वप्रथम हो, और किसी को अन्य पूर्व के एक अक्षर का ज्ञान सर्वप्रथम हो । ज्ञान किसी भी पूर्व का हो, वह होगा अक्षरादिक्रम से ही; क्योंकि संघात आदि पूर्व के अधिकार हैं। किस पूर्व में कितनी वस्तुएं होती हैं, इसका अलग से निर्देश किया है । सब वस्तुओंका ज्ञान वस्तुसमासज्ञान कहलाता है। मात्र एक अक्षर का ज्ञान इस ज्ञान में से घटा देना चाहिए,क्योकि एक पूर्व सम्बन्धी सब वस्तुओं का पूरा ज्ञान हो जाने पर उसकी पूर्वसमासश्रुतज्ञान संज्ञा होती है । इसी प्रकार वस्तु के अवान्तर अधिकार प्राभृतों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। तथा यही क्रम अन्य अधिकारों, अधिकारों के पदों और पदों के अक्षरों के विषय में भी जानना चाहिए । तात्पर्य यह है कि समस्त श्रुतज्ञान के विकल्प मुख्यातया चौदह पूर्वज्ञान से सम्बन्ध रखते हैं, क्योंकि श्रुतज्ञान में पूर्वज्ञान की ही मुख्यता है। इस प्रकार समस्त श्रुतज्ञान चौदह पूर्वो के ज्ञान के साथ सम्बन्धित हो जाने पर अंगबाहाज्ञान, ग्यारह अंगों का ज्ञान; और परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग तथा चूलिकाओं का ज्ञान; ये श्रुतज्ञान के किस भेद में गार्भित है, यह प्रश्न उठता है । वीरसेन स्वामी ने इस प्रश्न का इस प्रकार समाधान किया है - वे कहते हैं कि इस सब ज्ञान का अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वार समास में या प्रतिपत्तिसमास ज्ञान में अन्तर्भाव किया जा सकता है। यह पूछनेपर कि ये सब तो पूर्वसम्बन्धी अवान्तर अधिकार हैं, इनमें पूर्वातिरिक्त श्रुतज्ञान का अन्तर्भाव कैसे हो सकता है । इस पर वीरसेन स्वामी का कहना है कि ये पूर्व के अवान्तर अधिकार ही होने चाहिए ऐसी कोई बात नहीं है; पूर्वातिरिक्त साहित्य के भी ये अधिकार हो सकते हैं। ___ साधारणत: इस प्रकार समाधान तो हो जाता है, पर फिर भी यह जिज्ञासा बनी रहती है कि यदि यही बात थी तो समस्त श्रुतज्ञान के भेद-प्रभेद समस्त पूर्वो और उनके अधिकारों व अवान्तर अधिकारों की दृष्टि से ही क्यों किये गये हैं। पूर्वो के ये अधिकार और अवान्तर अधिकार केवल दिगम्बर परम्परा ही स्वीकार करती हो, ऐसी बात नहीं है; श्वेताम्बर परम्परा में भी ये इसी प्रकार स्वीकार किये गये हैं। हमारा विश्वास है कि विशेष अनुसन्धान
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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