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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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के एक चरण के आधार से नहीं की जाती रही है, जिस प्रकार कि वर्तमान में गद्यात्मक या पद्यात्मक ग्रन्थ के परिमाण की गणना बत्तीस अक्षर ही नहीं होते; किन्तु मात्रा, विसर्ग और संयुक्त अक्षर बाद करके ये लिए जाते हैं। तथा गद्यात्मक या अनुष्टुप् सिवा अन्य पद्यात्मक साहित्य में चाहे वाक्य पूरा हो या न हो जहां बत्तीस अक्षर होते हैं वहां एक अनुष्टम् श्लोक का परिमाण मान लिया जाता है। उसी प्रकार द्वादशांग वाणी में भी मध्यम पद के द्वारा इन अक्षरों की परिगणना की गई होगी। मात्र वहां पर गणना करते समय मात्रा आदि भी अक्षर के रूप में परिगणित किये गये होंगे । हां प्रत्येक अंग ग्रन्थ में अपुनरुक्त अक्षरोंका विभाग किस प्रकार किया गया होगा और प्रत्येक ग्रन्थ का इतना महा परिमाण कैसे सम्भव है, ये प्रश्न अवश्य ही ध्यान देने योग्य है । सम्भव है उत्तर काल में इनका भी निर्णय हो जाय और एतद्विषयक जिज्ञासा समाप्त हो जाय । - इस प्रकार अक्षरों की अपेक्षा श्रुतज्ञान का विचार कर आगे क्षयोपशम की दृष्टि से उसका विचार किया गया है।इसमें सबसे अल्प क्षयोपशम रूप ज्ञान को श्रुतज्ञान का प्रथम भेद माना गया है । इसका नाम पर्यायज्ञान है । यह सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के होता है और नित्योद्घाटित है । अर्थात् इस ज्ञान के योग्य क्षयोपशम का संसारी छद्यस्थ जीव के कभी अभाव नहीं होता । इसका परिमाण अक्षरस्वरूप केवलज्ञान का अनन्तवां भाग है । इसके बाद दूसरा भेद पर्यायसमास है । यह पर्यायज्ञान से क्रमवृद्धिरूप है । वृद्धिका निर्देश धवला में किया ही है। तीसरा भेद अक्षरज्ञान है । विवक्षित अकारादि एक अक्षर के ज्ञान के लिए जितना क्षयोपशम लगता है तत्प्रमाण यह ज्ञान है । इसी प्रकार क्रमवृद्धिरूप आगे के ज्ञान जानने चाहिए । इतनी विशेषता है कि पर्यायज्ञान के ऊपर छह स्थानपतित वृद्धि होती है और अक्षरज्ञान के ऊपर अक्षर ज्ञान के क्रम से वृद्धि होती है । यद्यपि कुछ आचार्य अक्षरज्ञान के ऊपर भी छह स्थानपतित वृद्धि स्वीकार करते हैं, पर वीरसेन स्वामी इससे सहमत नहीं हैं। पदज्ञान से यहां मध्यम पद का ज्ञान लिया गया है । एक मध्यम पद में १६३४८३०७८८८ अक्षर होते हैं, क्योंकि द्वादशांग के पदों की गणना इतने अक्षरोंका एकपद मानकर की जाती है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि होकर पूर्वसमास ज्ञान के अन्तिम विकल्प में श्रुतज्ञान की समाप्ति होती है । यह ज्ञान श्रुतकेवली के होता है । इस प्रकार क्षयोपशम की दृष्टि से श्रुतज्ञान के कुल भेद २० होते हैं।
. पूर्व चौदह हैं। उनमें से प्रथम पूर्व का नाम उत्पादपूर्व है और अन्तिम पूर्व का नाम लोकबिन्दुसार है । इसलिए प्रथम पूर्व को मुख्य मान कर क्षयोपशम की वृद्धि करने पर भी यही क्रम बैठता है और अन्तिम पूर्व को प्रथम मानकर क्षयोपशम की वृद्धि करने पर भी