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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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मतिज्ञान शब्द दृष्टिगोचर होता है और उसके बाद तत्वार्थसूत्र में यह क्रम दिखाई देता है। श्वेताम्बर आगम साहित्य भी इन शब्दों के प्रयोग में व्यत्यय देखा जाता है । उदाहरणार्थ समवायांग व नंदीसूत्र में आभिनिबोधिकज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु अन्यत्र व्यत्यय देखा जाता है । इससे स्पष्ट है कि ये आभिनिबोधिक, मति और स्मृति आदि शब्द एक ही अर्थ को कहते हैं । व्युत्पत्तिभेद से इनमें जो अर्थभेद किया जाता है वह ग्राह्म नहीं है । हां परोक्ष ज्ञान के भेदों में जो स्मृतिज्ञान, प्रत्यभिज्ञान और तर्कज्ञान ये भेद आते हैं वे अवश्य ही आभिनिबोधिकज्ञान से भिन्न हैं और उनका समावेश मुख्यतया श्रुतज्ञान में होता है ।
ज्ञान का दूसरा भेद श्रुतज्ञान है । यह मतिज्ञानपूवर्क मन के आलम्बन से होता है। तात्पर्य यह कि पांच इंद्रियों और मन के द्वारा पदार्थ को जानकर आगे जो उसी के सम्बन्ध में या उसके सम्बन्ध से अन्य पदार्थ के सम्बन्ध में विचार की धारा प्रवृत्त होती है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यहां सर्वप्रथम द्वादशांग वाणी की मुख्यता से उसके संख्यात भेद किये गये हैं, क्योंकि कुल अक्षर और उनके संयोगी भङ्ग संख्यात ही होते हैं । कुल अक्षर ६४ हैं । यथा - २५ वर्गाक्षर, य, र, ल और व ये ४ अन्तस्थ अक्षर; श, ष, स और ह ये ४ ऊष्माक्षर; अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, और औ ये नौ स्वर हृश्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से २७; तथा अं, अः...... क और प ये ४ अयोगवाह । इस प्रकार सब मिलाकर ६४ स्वतन्त्र अक्षर होते हैं । इनके एकसंयोगी और द्विसंयोगी से लेकर चौसठसंयोगी तक सब अक्षर एकट्ठी प्रमाण होते हैं । एकट्ठी से तात्पर्य १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ संख्या से है। चौंसठ बार दो का अंक (२ x २ x २ इत्यादि) रख कर और परस्पर गुणा कर लब्ध राशि में से एक कम करने पर यह संख्या आती है। द्वादशांगवाणी का संकलन इन सब अक्षरों में हुआ था और इसलिए यह बतलाया गया है कि किस अंग में कितने अक्षर थे । वीरसेन स्वामी ने इन संयोगी और असंयोगी अक्षरोंका स्वयं ऊहापोह किया है । वे बतलाते हैं कि अ आदि प्रत्येक अक्षर असंयोगी अर्थात् स्वतंत्र अक्षर है और अनेक अक्षर मिलाकर जो शब्द या वाक्य बनता है वह संयोगी अक्षरों का उदाहरण हैं । इसके लिए उन्होंने 'या श्री: सा गौ: ' यह दृष्टान्त उपस्थित किया है । इस दृष्टान्त में 'यू, आ, श्, इ, ई, अं, स्, आ, ग्, औ और अ:' ये ग्यारह अक्षर आये हैं। वीरसेन स्वामी इन्हें एक संयुक्ताक्षर मानते हैं। इससे द्वादशांग में संयुक्त और असंयुक्त अक्षर किस प्रकार के होंगे और उनका उच्चारण किस प्रकार से होता होगा, यह सब स्थिति स्पष्ट हो जाती है । पुनरुक्त अक्षरों का जो प्रश्न खड़ा किया जाता है उसपर भी इससे पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। द्वादशांग वाणी में पद का प्रमाण अलग से माना गया है। इससे विदित होता है कि वहां पदों की परिगणना किसी वाक्य या श्लोक