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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४३७ देशवासी, पारसीक, सिंहल और वर्वरिक आदि जनों की भाषा कुभाषा है और ऐसी कुभाषायें सात सौ हैं । भाषायें अठारह हैं । इनका विभाग करते हुए वीरसेन स्वामी ने भारत देश के मुख्य छह विभाग किये हैं और प्रत्येक विभाग की तीन-तीन भाषायें मानी हैं। वे छह विभाग ये हैं - कुरु, लाठ, मरहठा, मालव गौड़ और मगध ।
इसी प्रकार शब्द एक स्थान पर उत्पन्न होकर अन्य प्रदेशों में कैसे सुना जाता है, इस विषय का ऊहापोह करते हुए उन्होंने लिखा है कि शब्द जिस प्रदेश में उत्पन्न होते हैं उनमें से बहुभाग तो वहीं रह जाते हैं और एक भाग प्रमाण शब्द उससे लगे हुए प्रदेश तक जाते हैं। इनमें भी बहुभाग उस दूसरे प्रदेश में रह जाते हैं और एक भाग प्रमाण शब्द आगे के प्रदेश तक जाते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर कम कम होते हुए वे लोक के अन्त तक जाते हैं। समय के सम्बन्ध में विचार करते हुए उन्होंने दो समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल निर्धारित किया है। अर्थात् इन शब्दों को अपने उत्पत्तिस्थान से लोकान्त तक जाने में कम से कम दो समय लगते हैं और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । उन्होंने शब्द लोकान्त तक जाते हैं, इस विषय को स्पष्ट करते हुए कहा है कि वे उछल कर जाते हैं। इसलिए जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे ही उछल कर लोकान्त तक जाते हैं या तरङ्गक्रम से वे आगे नये नये शब्दों को उत्पन्न कर लोकान्त तक जाते हैं, यह विचारणीय है । वे शब्द सुने कैसे जाते हैं, इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए वीरसेन स्वामी ने लिखा है कि उत्पत्तिस्थान से जो शब्द सीध में सुने जाते हैं वे दो प्रकार से सुने जाते हैं - परघातरूप से और अपरघातरूप से । यदि वे दूसरे पदार्थ से टकराये नहीं हैं तो बाण के समान सीधी गति से आकर और कर्णछिद्र में प्रविष्ट होकर सुने जाते हैं, और यदि वे दूसरे से टकराकर सुने जाते हैं तो पहले वे सीध में किसी पदार्थ से टकराते हैं और तब फिर सीध को छोड़कर अन्य दिशा में गति करते हैं, पश्चात् वे फिर से अन्य पदार्थ से टकराकर सीध में आकर सुने जाते हैं। यह श्रेणिगत शब्दों के सम्बन्ध में विचार हुआ । इनसे भिन्न उच्छेणिगत शब्द पराघात से (टकराकर) ही सुने जाते हैं।
आभिनिबोधिकज्ञानावरण के प्रकरण को समाप्त करते हुए यहां अन्त में आभिनिबोधिकज्ञान और अवग्रह आदि के पर्याय शब्द दिये गये हैं और उसे 'अण्णा परूवणा' कहा है। आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायवादी शब्द लिखते हुए कहा है कि संज्ञा, स्मृति, मति
और चिन्ता ये उसके पर्यायवाची नाम हैं। जहां तक विदित हुआ है आगमिक परम्परा में प्रथम ज्ञान को अभिनिबोधिकज्ञान ही कहा है और संज्ञा आदि उसके पर्यायवाची नाम कहे गये हैं। सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में आभिनिबोधिकज्ञान शब्द के स्थान में