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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका होकर अन्य चिन्ता का निरोध करना ध्यान तप है। कषायों के साथ देह का त्याग करना कायोत्सर्ग तप है । यह छह प्रकार का अभ्यन्तर तप है।
यहां ध्यान का विस्तार से वर्णन करते हुए ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान का फल, इन चारों का विस्तार से विवेचन किया गया है । ध्यान के चार भेदों में से धर्मध्यान अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक, और शुक्लध्यान उपशान्तमोह गुणस्थान से होता है, यह बतलाया है । शुक्लध्यान के चार भेदों में से पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम ध्यान उपशान्तकषाय गुणस्थान में मुख्य रूप से होता है
और कदाचित् एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान भी होता है । क्षीणमोह गुणस्थान में एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान मुख्य रूप से होता है और प्रारम्भ में पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान भी होता है।
क्रियाकर्म -- इसमें आत्माधीन होकर गुरु, जिन और जिनालय की तीन बार प्रदक्षिणा की जाती है । अथवा तीनों संध्याकालों में नमस्कारपूर्वक प्रदक्षिणा की जाती है, तीन बार भूमि पर बैठकर नमस्कार किया जाता है। विधि यह है कि शुद्धमन से और पादप्रक्षालन कर जिन भगवान् के आगे बैठना प्रथम नमस्कार है । फिर उठकर और प्रार्थना करके बैठना दूसरा नमस्कार है । पुन: उठकर और सामायिकदण्डक द्वारा आत्मशुद्धि करके कषाय और शरीर का उत्सर्ग करके जिन देव के अनन्त गुणों का चिन्तवन करते हुए चौबीस तीर्थकरों की वन्दना करके तथा जिन, जिनालय और गुरु की स्तुति करके बैठना तीसरा नमस्कार है । इस प्रकार एक क्रियाकर्म में तीन अवनति होती हैं । सब क्रियाकर्म चार नमस्कारों को लिये हुए होता है । यथा-- सामायिक के प्रारम्भ में और अन्त में जिनदेव को नमस्कार करना तथा 'त्थोस्सामि' दण्डक के आदि में और अन्त में नमस्कार करना । इस प्रकार एक क्रियाकर्म के चार नमस्कार होते हैं। तथा प्रत्येक नमस्कार के प्रारम्भ में मन वचन और कायकी शुद्धि के ज्ञापन करने के लिए तीन आवर्त किये जाते हैं। सब आवर्त बारह होते हैं। यह क्रियाकर्म हैं। मूलाचार और प्राचीन अन्य साहित्य में भी उपासाना की यही विधि उपलब्ध होती है । यह साधु और श्रावक दोनों के द्वारा अवश्यकरणीय है ।
__भावकर्म -- जिसे कर्म प्राभृत का ज्ञान है और उसका उपयोग है उसे भावकर्म कहते हैं। इस प्रकार कर्म के दस भेद हैं। उनमें से प्रकृत में समवदानकर्म प्रकरण है, क्योंकि कर्म अनुयोगद्वार में विस्तार से इसी का विवेचन किया गया है।
इसके आगे वीरसेन स्वामी ने प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध:कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म; इन छह कर्मों का सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव