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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४३२ आहार लेना अवमौदर्य तप है । सामान्यत: पुरुष का आहार ३२ ग्रासका और महिला का आहार २८ ग्रास का माना गया है । एक ग्रास एक हजार चावल का होता है और इसी अनुपात से यहां पुरुष और महिला के ग्रासों का विधान किया गया है । वैसे जो जिसका स्वाभाविक आहार है वह उसका आहार माना गया है और उससे न्यून आहार अवमौदर्य तप कहलाता है। भोजन, भाजन और घर आदि को वृत्ति कहते हैं और इसका परिसंख्यान करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है । क्षीर, गुड़, घी, नमक, और दही आदि रस हैं । इनका परित्याग करना रसपरित्याग तप है । वृक्ष के मूल में निवास, आतापन योग और पर्यंकासनआदि केद्वारा जीवका दमन कायक्लेश तप है । तथा विविक्त अर्थात् एकान्त में उठना, बैठना व शयन करना विविक्तशय्यासन तप है। यह छह प्रकार का बाह्म तप है । यह बाह्म अर्थात् मार्गविमुख जनों के भी ध्यान में आता है, इसलिए इसकी बाह्म तप संज्ञा है । कृत अपराध के निराकरण के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है उसकी प्रायश्चित संज्ञा है । यहां पर प्रायः शब्द का अर्थ लोक है और चित्त का अर्थ मन है । अत: चित्त का संशोधन करना ही प्रायश्चित है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । वह प्रायश्चित आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान के भेद से दस प्रकार का है। इनमें से आलोचना गुरु की साक्षीपूर्वक और प्रतिक्रम गुरु के बिना अल्प अपराध होने पर किया जाता है । तदुभय स्पष्ट ही है । गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदि से अलग करना विवेक है। तात्पर्य है कि जिस द्रव्य आदि के संयोग से दोषोत्पत्ति की सम्भावना हो उससे जुदा कर देना विवेक प्रायश्चित्त है । ध्यानपूर्वक नियत समय के लिए कायसे मोह छोड़कर स्थित रहना व्युत्सर्ग प्रायश्चित है । उपवास, आचाम्ल आदि करना तप प्रायश्चित है। विवक्षित समय तक की दीक्षा का छेद करना छेद प्रायश्चित है । पूदी दीक्षा का छेद करना मूल प्रायश्चित्त है। परिहार दो प्रकार का है - अनवस्थाप्य और पारंचिक । अनवस्थाप्य का जघन्य काल छह माह और उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है। यह कायभूमि से दूर रहकर विहार करता है, इसकी कोई प्रतिवन्दना नहीं करता, वह गुरु के साथ ही संभाषण कर सकता है। पारंचिक तप में इतनी विशेषता है कि इसे जहां साधर्मी बन्धु नहीं होते ऐसे क्षेत्र में आहारादि की विधि सम्पन्न करते हुए निवास करना पड़ता है । यह दोनों प्रकार का प्रायश्चित राज्यविरुद्ध कार्य करने पर दिया जाता है । मिथ्यात्व को प्राप्त होने पर पुन: सद्धर्म को स्वीकार करना श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त है। ___ज्ञानादि के भेद से विनय पांच प्रकार का है। आचार्य आदि की आपत्ति को दूर करना वैयावृत्यं तप है । जिनागम के रहस्य का अध्ययन करना स्वाध्याय तप है । एकाग्र
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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